जिंदगी से बेखबर - कविता - गजेंद्र कुमावत "मारोठिया"

जिंदगी से बेखबर,
शाम तक की दौड़, 
भौर को जो निकला था,
संवारने परिवार की डोर, 
चलता रहा... 
चलता रहा... 
अनवरत 
वो... 
जिंदगी से बेखबर, 

ना थका, ना रुका, 
ना राह ताका, ना सँवरा, 
पथरीली गर्म धरती को,
सूरज की तेज गर्मी को, 
सहता रहा... 
सहता गया... 
अनवरत 
वो... 
जिंदगी से बेखबर 

अश्क़ आँखों से गालो पर,
स्वेद ललाट से पीठ पर, 
फिर भी चेहरे पर ना गिला,
नहीं शिकवा किसी पर, 
हँसता रहा...
मुस्कुराता रहा... 
अनवरत 
वो... 
जिंदगी से बेखबर 

दिल में परिवार,
परिवार का भविष्य, 
मन में हजारों ख्वाहिशें,
कर दिया सबको दफन, 
मेहनत करता रहा... 
चलता रहा... 
अनवरत 
वो... 
जिंदगी से बेखबर 

शाम का ना पता,
पेट खाली या भरा, 
पसीने से प्यास बुझा,
पेट उम्मीद से भरा, 
मिलेगा मुझको भी,
एक दिन वो मजा, 
रात में भी दिन सा,
जीवन होगा मेरा, 
सोच कर ऐसा 
चलता रहा... 
चलता रहा... 
वो जिंदगी से बेखबर।

गजेंद्र कुमावत "मारोठिया" - रेनवाल, जयपुर (राजस्थान)

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