कोरोना - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

नजर पसारे
भयभीत है लोग
कही चुप्पी कही रोना ही रोना है
रिश्तो में पड़ गई
दरारे ऐसी आफत आई
जहाँ देखो तहाँ
कोरोना ही कोरोना है।

पहिया थम गये
रेलो के
थमी बसों की आवाज।
घर से बाहर
नही निकलना
नही तो
कोरोना की आगाज।
हवा में
फर्राटे भरते
हवाई जहाज
हो गए है चुपचाप।
नाक का छूना
मुँह ढकना
मास्क लगाते
रहना अपने आप
एक दूजे के घर जाने से
डरते है लोग
कबहु न देखा
कबहु न सुना
ऐशा कलयुग
का संजोग
हाट बाजार
ओर दुकानों के ताले
बंद पड़े है
कई महीनों से।
एक एक दिन
कटे साल सो
गली मोहल्ला
लग रओ सूने से।
धर्म कर्म
ओर जन्म मरण के
संस्कार हो
गए अब सीमित ।
पड़ना लिखना छोड़ा
अब गुरुजी
कोरोना को
देते एहमियत।
बेटा समझावे
मम्मी पापा को
घर से बाहर
न निकलियो।
जो होना है सो होना है
रिश्तो में पड़ गई दरारे
जहा देखो तहाँ कोरोना ही कोरोना है
नजर पसारे है लोग भयभीत
कही चुप्पी कही रोना ही रोना है।


रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)


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