बेटी की अभिलाषा - कविता - अरविन्द कालमा

अभिलाषा रखो घर में हो जान बेटी की।
ना करो कोई भेदभाव सा व्यवहार बेटी से।।
बलि दी जाती बेटी के अरमानों की और।
कुल के सम्मान की उम्मीद रखते बेटी से।।

अभिलाषा हो एक बेटी की हर घर में
बेटियाँ ही घर का शिराग है ये मानिए।
एक बेटी दो घर को रोशन करती है 
मेरी  करूणा भरी पुकार को सुनिए।।

एक सुखी परिवार बेटी को है चाहता
खुलकर बेटी के अरमान को जगाता।
रखें गर हम एक बेटी की अभिलाषा
खुशहाल परिवार से पूरी होगी आशा।।

बेटे के लिये सुंदर बहु की रखते हो आशा
फिर क्यों नहीं रखते बेटी की अभिलाषा?
संस्कारी कुल में बेटी- बेटा होते समान
बढ़ता तब कुल का मान और सम्मान।।

अरविन्द कालमा - साँचोर, जालोर (राजस्थान)

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