सुहागन - कविता - पूजा सिसोदिया "साधना"

सुहागन बन के आई थी तेरे घर,
सुहागन बनके ही जाना चाहती हूँ।
अर्थी का सिरा टिका हो तेरे कांधे,
श्मशान तक सहारा पाना चाहती हूँ।

रोज तुझे हँस के विदा करती थी,
तू भी हँसकर ही विदाई देना मुझे।
एक भी आँसू ना हो तेरी आँख में,
कुछ इस तरह की जुदाई देना मुझे।
मरणासन्न तक साथ पाना चाहती हूँ।
सुहागन बन के आई थी तेरे घर,
सुहागन बन के ही जाना चाहती हूँ। 

शायद मजबूर ही रही मेरी मोहब्बत,
जो निभा ना पाई तेरी कसमों को।
शरीर भी कहाँ तक कोशिश करता?
निभाता रहा बीमारी भरी रस्मों को।
प्यार का एक बीज बोना चाहती हूँ।
सुहागन बन के आई थी तेरे घर।
सुहागन बन के ही जाना चाहती हूँ।।

पूजा सिसोदिया "साधना" - पानीपत (हरियाणा)

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