बगावत के बादशाह - हास्य व्यंग्य लेख - कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी

भई चुनावी बयार में तो अच्छे-अच्छे बहक जाते हैं हम तो पहले से ही बगावती बादशाह हैं शुभचिंतक तो जनता के ही है ना, कुर्सी तो एक बहाना है जिसके द्वारा हम नेतृत्व का सिंहासन करते हैं। खैर चुनावी बिगुल बज चुका है कौन-कौन बगावत करेगा और कौन-कौन अंतिम सांस तक साथिया वाला साथ निभाएगा सियासत का चुनावी सात्विक ड्रामे की पटकथा, संवाद, किरदार, पार्टी तथा  वेशभूषा इत्यादि निठ्ठलो कि कार्मिक पूजनीय एक्टिंग कहां तक जनता को वोटिंग के लिए  पटियाती है, यह तो हमारी यह बगावती पहचान ही बता देगी खैर जब बगावतीपन का बुखार चढ़ जाता है तो जनता की गर्म-ठंडे पानी वाली वोट पट्टी उसे ही उतरता है तथाकथित चुनावी मैदान में मुंह बोले भैया-भौजी, दादा-दादी दूर से ही पाएं लागी के बाद ये ठीक चुनावी मैदान में ही जनता के शुभ चिंतक नजर आते हैं जब पर्सनल पे आँच आई तो एक बात समझ लेना चाहिए कि अब भला होने वाला है परंतु किसका नई सोच नए इरादे है ठिकाने वाली स्थाई कुर्सी के चारों कोनों का किसी भी तरह हमारे ही होना चाहिये यह चुनावी बगावत दल-बदलवा बाण चढ़ चुका है कौन-कौन टेन ऑफ टेन के बीचो-बीच निशाना लगाकर सियासत की टॉप टेन में जगह पक्की करता है यहां कार्यालय सदस्यता की चहल-पहल बता देगी कि निशाना, नामांकित प्रत्याशी जो कुछ हो ड्रामा के सच्चे एक्टर, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर जनता के कामों के लिए तुम ही हो जिससे सियासत की बादशाहत मिली और हम जनता को स्वाभिमानी नेता जो जनता की कुर्सी के खातिर बागवती पहचान आज यहाँ तो कल वहां हम तो हम हैं प्यारे नेता तुम्हारे अपने शुभ चिंतक।

कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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