इंतज़ार - कविता - संजय राजभर "समित"

गजब की छुअन थी
रोमांचित था तन-मन, 
हया आँखों में थी 
आग दोनों तरफ थी। 

चुप्पी थी
फिर भर न जाने क्यूँ 
हम दोनों रुके थे 
इंतज़ार था
दोनों तरफ से 
बड़ी मासूमियत से घुटनों के बल 
इजहार का।

वो चली गयी धीरे-धीरे 
वो पलटकर मुझसे लिपटना चाहती थी। 
कुछ सुनकर 
आइ लव यू
पर मैं ...
चेतनाशून्य ...
कुछ बोल न सका, 
पता नहीं क्या हो गया था !
शायद सबसे बड़ी गलती थी। 

आज मेरा भरा परिवार है
फिर भी न जाने क्यूँ? 
आज भी उसका इंतज़ार है। 
काश् एक बार 
इजहार कर लिया होता।

संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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