समाज का आईना - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"

औरत है तुम्हारे समाज का आईना,
खुद को देखो और पहचानों।
कैसे दिखते हो तुम असल में,
अपनी असलियत भी जानों।।
कुछ शब्दो की माला,
ये कविता नहीं हृदयनाद है।
सच तो ये है कि एक नारी के दिल की आवाज है।
आँखो मे कितने समन्दर और कितने जल प्रपात है।
मन में कितने पश्न चिन्ह और अनकहे अल्फ़ाज़ है।।
पंछी बन उड़ने की चाहत,
पर कई शिकारी जालसाज हैं
कदम कदम पर पावन्दी,
राहों में घूरती हुई आँख है।
हर तरफ बस नसीहते,
कहीं जंजीरे तो रस्सी का सांप है
निगल जाने को आतुर,
कहीं फन फैलाए  काले नाग हैं।।
औरत तो औरत ही नहीं,
मानों सजावट का सामान है
घर गली मोहल्ले में व्यंग,
आलोचक भरमार है
बाल देखो, चाल देखो,
नमूने की मुँह दिखाई है।
चिडियाघर में नया जानवर,
घूँघट में इस बार देखो।।
कहीं काले कपडों में छुपी,
क्या कपडो़ की जंजीर नहीं
या फिर सादे कपड़ो में,
ज़िंदा उसकी तक्दीर नहीं।
आदमी औरत, एक से रिवाज नही,
सामाजिक तस्वीर नहीं।
सिर्फ डराना ही फर्ज है,
समाज है या शमशीर कोई।।
औरत है तुम्हारे समाज का आईना,
खुद को देखो और पहचानों।
कैसे दिखते हो तुम असल में,
अपनी असलियत भी जानों।।

सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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