तीर्थ यात्रा - संस्मरण - सुधीर श्रीवास्तव

बात 2010 की है। मैं अपने ही शहर में एक कारपोरेट कं. में फील्ड वर्कर की हैसियत से कार्य कर रहा था। हमारे शाखा प्रबंधक राकेश कुमार जी हम उम्र ही थे, उनका स्वभाव अत्यंत सरल था। अपना बनाने का गुण तो उनमें कूट कूटकर भरा था।

इस वर्ष अयोध्या के सावन झूला मेला जाने का उनका इरादा बन रहा था। क्योंकि उनके माता पिताजी की इच्छा अयोध्या दर्शन की थी। राकेश जी मूलतः बिहार के रहनेवाले थे। चूंकि वर्तमान में गोण्डा में ही पोस्ट थे, जहाँ से अयोध्या मात्र पचास किमी. की ही दूरी पर है। इसलिए उनकी भी इच्छा थी कि इसी बहाने माँ पिताजी को अयोध्या घुमा दिया जाये।

खैर....। अपनी इच्छा को उन्होंने कई वर्करों से व्यक्त की।
उनकी इच्छा थी यहांँ से अगर कोई उनके साथ चलता है तो थोड़ी सुविधा होगी।क्योंकि पास होने के कारण अधिकतर लोग अयोध्या कई कई बार जा चुके हैं। बहुत से लोग हर सोमवार को नागेश्वरनाथ नियमित जल चढ़ाने के लिए जाते हैं। कुछ हनुमानगढ़ी प्रसाद चढ़ाने और जन्मभूमि दर्शन के लिए अक्सर जाते रहते हैं।

दो तीन लोगों ने उन्हें पूरी तरह आश्वस्त भी कर दिया कि वे साथ चलेंगे और कोई समस्या नहीं होने पायेगी। मुझसे उनका लगाव कुछ इसलिए भी अधिक था क्योंकि हमनें अपने मित्रों और संबंधियों के सहयोग से उन्हें और उनके स्टाफ को कमरा दिलाया था। इसलिए भी उन्होंने मुझे भी इस बारे में बताया था और उनकी इच्छा भी थी कि मै भी साथ चलूँ। फिलहाल मैनें उन्हें सहजता से उन्हें इस आश्वासन के साथ मना कर दिया था कि यदि कोई नहीं जायेगा तो मैं जरूर चलूँगा।क्योंकि मुझे पता था कि जो लोग आश्वासनों का पिटारा खोल रहे हैं उनके साथ विश्वसनीयता का संकट है।
फिलहाल जाने का दिन तय हो गया, दो दिन पूर्व राकेश जी के पिताजी भी आ गये।

अंततः जाने का दिन भी आ गया।राकेश जी अब उन लोगों से जब संपर्क किये तो एक एक कर सभी ने कुछ कारण बताकर मना कर दिया।राकेश जी परेशान हो उठे कि माँ पिताजी तैयार बैठे हैं। अब क्या किया जाय? फिर उन्होंने मुझे फोनकर पूरी बात बताई और मुझे साथ चलने का आग्रह किया। वादे के अनुसार मैं भी विवश था। अतः मैनें उनसे कहा कि आप माँ पिताजी को लेकर स्टेशन पहुँचिए, मैं वहीं आता हूँ, क्योंकि मेला स्पेशल के छूटने में अब एक घंटे का ही समय शेष था और भीड़ तो होनी ही थी।

खैर....। जल्दी जल्दी मैं तैयार हुआऔर स्टेशन पहुँचा।राकेशजी किसी तरह ट्रेन में माँ पिताजी के साथ बैठ चुके थे।मैं भी उन्हें ढूंढ़ कर किसी तरह अंदर पहुंचा।राकेश जी के चेहरे का भाव बता रहा था कि मन के किसी कोने में वे मेरे आने के प्रति ससंकित थे। जिसका जिक्र उन्होंने खुद जब ट्रेन चल दी तब बड़ी ही साफगोई से किया भी। हम लोग अयोध्या पहुंच गये। मैनें अपने एक मित्र के मित्र के सहयोग से जैन मंदिर में कमरा लिया। हम सबने थोड़ा आराम किया और फिर हनुमानगढ़ी दर्शन कर थोड़ा घूमने के बाद कमरे पर वापस आ गए।
बता दूं कि मैं चार साल अयोध्या में रह चुका था, इसलिए कोई विशेष असुविधा का डर नहीं था।

अगले दिन सरयू स्नान के बाद हमलोग पहले मणिपर्वत, भरतकुंड, सूर्यकुंड गये और फिर वापस कमरे पर आ गये। माँ पिताजी अपेक्षाकृत बुजुर्ग थे, इसलिए राकेश जी माँ को और मैं उनके पिताजी को रास्ते में सँभालते रहे।इसी कारण राकेश जी अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर नहीं आये थे।
एक बात और बता दूँ कि चार साल अयोध्या में रहने के बाद भी मैं बहुत कम मंदिरों में गया था।

शाम को हमलोग फिर निकले और रामजन्म भूमि, दशरथ महल, कनक भवन, होते हुऐ मणिराम छावनी, बाल्मीकि मंदिर, जानकी महल सहित रास्ते में जितने भी मंदिर पड़े देखते दर्शन करते हुए तुलसी उद्यान होते हुए छोटी देवकाली के दर्शन कर देर रात कमरे पर आ गये। हम सब थककर चूर हो चुके थे। भोजन के बाद सभी सो गये।
सुबह फिर सरयू में डुबकी के उपरांत हनुमानजी के दर्शन कर दोपहर तक विभिन्न मंदिरों में दर्शन सुख का आनंद लेते हुए एक बजे कमरे पर आये थोड़ा आराम के बाद हम लोग उस मित्र के मंदिर/घर पर भोजन लेने गये और वहाँ से वापस आकर गोण्डा के लिए प्रस्थान किया।
राकेश जी तो प्रसन्न थे ही उनके माँ पिताजी भी मेरे होने और पुत्रवत सेवा भाव से भाव विह्वल हो रहे थे।

मुझे लग रहा था कि राकेश जी के बहाने से मैनें भी पूरी तरह अयोध्या दर्शन का लाभ उठाया।
इस तरह हमारी अयोध्या तीर्थयात्रा गोण्डा पहुंचकर समाप्त हो गई।
जय श्री राम जय बजरंगबली

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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