प्रकृति - कविता - प्रवीन "पथिक"

डूबा दिवा अनंत आकाश में,
कई आँसू गिरे क्षितिज के पार।
याद आया घुमड़ता घन,
विरत दर्शनोपरांत संसार।
याद आई मधुपों की गुंजार,
घुलने लगी कानों में कोयल की मीठी तान।
याद आई प्रेयसी की वासंती चोली,
जो अधरों पे खिलाते अपूर्व मुस्कान।
छू गया दिलों को वह फागुन का शाम,
जहाँ खेत खलिहानों में मचलते सरसों के फूल।
याद आई जेठ की उनकी कुम्हलायी काया,
जो बरौनियों में गुंथते श्वेद के जलकण ।
सावन के उमड़ते मेघ भी,
आच्छादित हो गए स्मृतियां लिए।
याद आई उनकी भोली सूरत,
उनीऺदी नयनों से हिमजल हास किए।
शांत पड़ गया वह स्मृति लहर,
डूब गया गमों के सागर में।
कई टुकड़ों में हुआ विभाजित,
आँखों में उनकी मूरत लिए।

प्रवीन "पथिक" - कुसौरा बलिया (उत्तरप्रदेश)

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