प्रकृति दृश्यमय है - कविता - कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी

प्रकृति का वह दृश्य नवेला
युगो युगो के जैसा था वह 
जैसा कल देखा था मैंने 
उदयाचल में लाल था गोला 
पल-पल बढता देखा मैंने।

आसमान के मेघा पर वह 
रंग बदलता पीला गोला
पूरब से पश्चिम में जाते
एक उजेला ढलते देखा।

अंबर की वह एक पहेली 
छुपे हुए मेहों में थी वह
पल भर में फिर बुझ गई 
शाम नूरानी छोड़ गई।

रात पहेली जाग गई
सन्नाटे की थी एक माया
चांद सवेरे का जैसा था
तारों से मंडित हुआ आसमां।

ठंडी ठंडी थी बयार वह 
उत्तर से दक्षिण में बहती है
मन आनंदित झूम उठा 
तन रोम-रोम वह चहक उठा।

अंधकार के नभ मे मैंने
तिमिराँचल को ढ़लते देखा
एक सवेरा उगते देखा
प्रकृति का वह दृश्य नवेला।

कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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