मानवता - कविता - प्रवीन "पथिक"

देखा बुढ़िया को,
घास छिल रही थी पथ के किनारे।
अस्थि पंजर ही अवशेष,
काया झुकी, त्वचा पर झुर्रियां।
बयां कर रही थी उसकी जीवन गाथा।
तथापि;
पूछ लिया आदतन उसके बारे में,
सुनकर उसकी करुण व्यथा;
शर्मसार हुई मानवता,
औे ब्रह्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति।   
इकलौता पुत्र,
उससे जुड़ी हर आकांक्षा;
देखती पूर्ण होने का सपना।
पर! पूरे नहीं शायद पूर्वजन्म के पाप,
भोगना बदा था,उस कलमुही बुढ़िया को।
शराब पीने लगा, घुला लिया अपना तन।
मर गया शहर के चौराहे पर।
बीबी भाग गई गैर के साथ;
शायद पीठ के घाव न भरने के कारण।
जो पत्नी होने के सौभाग्य स्वरूप प्रदत्त था।
छोड़ गई मासूम बच्ची को ,
बुढ़िया की छाती पर मूंग दलने के लिए।
आठ आठ अश्रुधारा निरंतर प्रवाहित,
उसके नेत्रों से।
रहती रईसों की बस्ती में;
बिना भीख मांगे, हाथ फैलाए।
कारण होता आत्मसम्मान का हनन 
रहती;
असहाय, अकिंचन, अकेली।
क्योंकि;
मानवता मर चुकी है।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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