चिंता को परभाषित करना,
हमारा काम है बस
चिंता, चिंता और चिंता से ही
मुक्ति की कोशिश करना।
चिंता चित्त की चिता बनकर
हमें धीरे धीरे
सुलगाती है,
गीली लकड़ी की तरह।
चिंता हमें सूकून से
जीने नहीं देती,
अंदर ही अंदर
हमें खोखला कर देती।
सब कहते हैं चिंता मत करो
मगर क्या करुँ मैं?
ये बेशर्म चिंता हमें
चिंता मुक्त रहने नहीं देती,
अपने आगोश से हमें
बाहर जाने नहीं देती।
सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)