बलात्कार - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"

हैवानों की हवस का 
कब तक शिकार होंगी
एक एक करते करते कितनी 
निर्भया जांन निसार होंगी।

न तरस आता है उन्हें किसी पर
उन्हें नियम कानून का डर न है
न   हैं  उनकी माताऐ बहनें
क्या उन हैवानों के घर न है।

चन्द मिनट की हैवानियत 
शर्मसार होती पूरी इंसानियत
किसी की पूरी जिन्दगी के बदले
क्या उनके सीने में जिगर न है।

उनको भी जिंदा जला दो
काट दो अंगो की गरमी
जला दो तन को उनके भी फिर
हल्की कर दो ये धरती।

'सूर्य' आज आहत है फिर से
फिर सारा समाज शर्मसार हुआ,
सिर्फ नहीं हुई लडकी बेआबरू
पूरे समाज का बलात्कार हुआ।।

सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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