आखिर कब तक? - कविता - संतोष सिंह

सींची होगी जमीं,
अश्रुओं की बरसात से।
गुनहगार तेरा ये समाज है,
इस कुकर्म बिसात से।
दिल्ली, उन्नाव, हाथरस,
ये क्या हो रहा है ? 
मां भारती ये क्या?
तेरी इज्ज़त शर्मसार हो रही है।
पूछो अपने रखवालों से,
क्या तूने यही सिखाया है?
बेटी हर घर की मां भारती है,
फिर क्यों ये दिन दिखाया है?
क्या हालात है नारी की?
ये सब जानता है।
चुप क्यों है ये समाज ?
समय नहीं अब साड़ी की,
आखिर पूछता हूँ दरिंदो,
क्या पहनाऊं? राजदुलारी को,
महज़ उम्र है नाज़ुक सी,
लगती राजकुमारी सी।
कैसे कहूँ अब?
मैं भी नहीं लिख पाऊंगा।
ये क्या हो रहा है,
आग ख़ुद को उबाल रहा है।
किस हद तक गिरोगे मानव?
दानव तेरा बेजोड़ पर्याय है।
सभ्य,समृद्ध,सुशील समाज, 
संस्कार,संस्कृति अब बेकार है।
उठेंगी अंगुलियां मुझपर,
लिखने में ये सब।
क्या करूं ? क्षमा प्राथी हूं।
समाज का  यही हाल है।
कितनों को ये मत सोचो,
सबको फांसी के फंदे पर।
पहुंचा दो अगर क्षण भर में,
मुस्कुराएगा भारत पल भर में।
नारी तुम फूलन बन जाओ अब,
इंसाफ तब मिलेगा यहां।
कर दो वार दरिंदो पर,
तब गुल खिलेगा यहाँ।
कितनी सहिष्णु है तू?
शादी से पहले,शादी के बाद भी,
हम पुरुष हैं दुश्मन तेरे,
तेरे जिम्मेदार भी।
लिखूंगा अब क्रांति कितनी,
तेरे जात की नाम की।
फर्क नहीं पड़ता दरिंदों को,
भूखे गीदड़ हवसी हराम को।
रखो घर में तलवार अब,
करो दरिंदों पर वार अब।
आखिर कब तक ये होगा?
बन जा देवी तब ये रुकेगा।
ऐलान कर दो जंग का,
नारी तुम अपने अंग का।
यहां नहीं सुनने वाला कोई,
सब ढोंगी, न नेता, न पुलिस कोई।
इज्ज़त उसके घर की जाए जब,
पता नज़दीक से चलेगा तब।
क्या हो रहा है घर में उसके?
बलात्कार हुआ है घर में जिसके।
मां बैठी इंसाफ की आस में,
पिता नज़र झुकाए।
भाई दौरे थाना, कोर्ट,कचहरी,
हर टेबल के नीचे सुपारी।
गुजर गए दशक को,
इंसाफ न मिला जब।
गिरवी एक गरीब की,
घर,खेत-खलिहान सब।
कानून को बदल दो,
मुहर लगा दो फांसी की।
अगर नहीं कर सकते ये तो,
नारी को रानी बनने दो झांसी की।
बहुत बोलेंगे,
कुछ लोग गाली भी देंगे।
मैं लिखूं सत्य अगर तो
क्या गुनाह किया मैंने ?
ये राजनीतिक लोग होंगे,
फ़र्क न पड़ेगा जज़्बाती क़लम को,
जिसे अपनी मां- बहन प्यारी है।
वो इंसान, ईमानधारी है,
वो राजनेता होगा अपने घर में,
मेरे कलम में वो सिर्फ भिखारी है।

संतोष सिंह - खगड़िया (बिहार)

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