अपनी हिन्दी - कविता - प्रवीन "पथिक"

जब  छोटा था, सीखा हिन्दी,
हुआ  बड़ा  तो छोड़  चला।
जिसकी छाया में पला बढ़ा,
उसी से निज मुख मोड़ चला।

हिन्दी  हमारी  माता   है,
हम सबका इनपर मान रहे।
सगर्व  उठा  यह  शीश  रहे,
भारत  माँ  का सम्मान रहे।

है  रखा  भाव सरहप्पा  ने,
देकर अपनी कुछ मनोकथा।
आ के दीप्त किया रासों ने,
चुन कर  वीरों  की  गाथा।

प्यासों की प्यास नहीं बुझती,
शबनम  की  बूँद  पीने  से।
है नहीं प्रेम हिन्दी से जिसका,
मरना  अच्छा  है  जीने  से।

सूर तुलसी की वो देव भक्ति,
कबिरा की ढ़ाई आखर से है।
मीरा  की  वह  करुण वेदना,
जायसी  की पद्मावत  से  है।

लिए  सौंदर्यता  प्रकट  भए,
केशव,भूषण, बिहारीलाल यहाँ,
किए आलोकित निज आलोक से,
हिन्दी  को  सर्वत्र  जहाँ।

जब  थी  ज़रूरत नवचेतना  की,
रख नींव, भारतेन्दु ने दिया सवांर।
आकर "प्रताप" औे "प्रेमघन" ने,
ला दी इसमें रौनक औ निखार।

हुआ पदार्पण द्विवेदी जी का,
किए  सरस्वती  पर  विचार ।
देख   विचारी   की   दशा,
सम्हाला निज पर कार्य भार।

प्रसाद, पंत, निराला वर्मा,
हिन्दी में आकर चमक रहे।
दिनकर के उस कुरुक्षेत्र में,
राष्ट्र प्रेम  जो  अमर  रहे।

वैसे  तो  भाषा  अनेक  है,
पर! हिन्दी अपनी है निराली।
सब  भाषाओं  में  है ऊपर,
सब  भाषाओं  से  है  प्यारी।

शोभा हमारी है हिन्दी से,
जैसे  नारी  की  बिंदी  से।
यूँ रखें प्रेम हिन्दी से अपना,
जैसे  ख़ुद की ज़िन्दगी से।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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