हे भारत भाषा - कविता - अशोक योगी "शास्त्री"

सदियों  से दासता की बेड़ी पड़ी रही
पर तू स्वाभिमान से हमेशा अड़ी रही।

उर्दू, फ़ारसी  और  अंग्रेजी  के आगे
तू    सीना    तानकर     खड़ी    रही।

असंख्य   भाषाओं   के    उपवन  में 
तू    बहन    सदा    ही     बड़ी   रही।

अहिंदी    भाषी     राज्यो     में    भी
तू    संपर्कों   की   भाषा   बनी  रही।

कभी      नागरी,    कभी     कौरवी
कभी    बनकर    बोली   खड़ी   रही।

मुंशी,   महादेवी    की   जिहवा   से
तू   कल कल   सरिता  सी  बही रही।

नाथ    साहित्य    से     अब   तलक 
तू   अपने   पांवों   पर   खड़ी    रही।

जय  हो  जय हो  जय हो हे भारत भाषा
तू भारत भाल पर बिंदी बनकर जड़ी रही।

अशोक योगी "शास्त्री" - कालबा नारनौल (हरियाणा)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos