मुस्कान बन के आये हो - ग़ज़ल - डॉ. यासमीन मूमल "यास्मीं"

ग़मे-हयात में मुस्कान बन के आए हो।।
ख़िज़ां के दौर में रंगे बहार लाए हो।।

न शर्मसार किये हो न आज़माए हो।
ग़ुरूर ये है फ़क़त दिल से दिल लगाए हो।।

हज़ारों रंग के ख़्वाबों  के लग गए मेले।
मेरी निगाह में जबसे हुज़ूर आए हो।।

मेरे नसीब से जलने लगीं बहुत सखियाँ।
दयारे हुस्न में जबसे गले लगाए हो।।

मुझे तुम अपना समझते हो तो बता देना।
ग़मों का बोझ अकेले ही क्यूँ उठाए हो।।

लबों को चूम के तुम तो चले गए लेकिन।
अभी भी गर्मिये अहसास में समाए हो।।

बहादुरी की ये मोहकम दलील है असगर।
गले  पे  तीर  लगा   है  तो मुस्कुराए  हो।

हमारी जान निहाँ "यासमीं" की जान में है।
न जाने हमसे अब उम्मीद क्यों लगाए हो।।

डॉ. यासमीन मूमल "यास्मीं" - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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