शिक्षा का मूल उद्देश्य - लेख - सुषमा दीक्षित शुक्ला

जीवन की नींव ही शिक्षा है।अतः  शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण होना परम आवश्यक है।
बिना जीवन मूल्यों के उद्देश्य की आपूर्ति के शिक्षा अधूरी है। रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण शिक्षा का अहम पहलू है। स्वतंत्रता के पश्चात हमें शिक्षा के क्षेत्र में किस दिशा में बढ़ना था और हम किस तरफ चल पड़े। हमारी वर्तमान शिक्षा नीति जीवन के मूल उद्देश्यों को पूरा कर पा रही है अथवा नहीं?

शिक्षा के उद्देश्य की बात करते है, तो स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि, मैन मेकिंग एंड करैक्टर बिल्डिंग, यानी व्यक्तित्व का विकास और चरित्र निर्माण है, शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास है जिससे चरित्र निर्माण होता है। केवल अंक तालिका के नंबर या केवल रोजगार परक  सार्थक नही होती। जब शिक्षा पंचकोश के आधार पर हो तो बालक का विकास होगा, वह बालक निस्वार्थ ही होगा, सेवाभावी  होगा।

शिक्षा का मूलाधार अध्यात्मिक होना चाहिए, जिससे शरीर से सबल होगा, बुद्धिमान होगा।
शिक्षा से सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने आवश्यकता है।
शुरुआत में किसी भी व्यक्ति के 15 साल के जो पढ़ाई के होते हैं उसी के आधार पर उसके पूरे जीवन का चरित्र निर्माण होता है।

शिक्षा ऐसी चीज है कि छोटी उम्र से बच्चे के मन पर उसका गहरा प्रभाव होता है, जो पूरे जीवन कायम रहता है।
शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षा में प्राचीन व आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए।
व्यवहार के सिद्धांत का संतुलन होना चाहिए, शिक्षा स्वायत्त तो होनी चाहिए एवं मूल्य आधारित होनी चाहिए।
शिक्षा व्यवसाय  न होकर सेवा का माध्यम होनी चाहिए।
साथ में शिक्षा का टुकड़ों टुकड़ों में विचार न करते हुए समग्रता एवं एकात्मता के दृष्टिकोण पर आधारित होनी  चाहिए।
इस प्रकार की आधारभूत बातों के आधार पर शिक्षा नीति व्यवस्था एवं पाठ्यचर्या पाठ्यक्रम का निर्धारण होना चाहिए।

शिक्षा के उद्देश्य में सबसे महत्वपूर्ण है चरित्र निर्माण दूसरा जीविकोपार्जन का उद्देश्य।
शिक्षा एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो मानव के सर्वांगीण विकास तथा समाज के निर्माण से जुड़ी हुई है।  उद्देश्य हीन शिक्षा एक दिशाहीन तथा निष्फल प्रयास है। शिक्षा के उद्देश्य एवं लक्ष्य निर्धारित होने पर मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है।

स्वभाव और उद्देश्य का ज्ञान होने पर ही उनकी प्राप्ति के उपाय आसानी से खोजे जा सकते हैं। जिसको अपने उद्देश्यों का ज्ञान नहीं होता उसे कभी सफल शिक्षक नहीं माना जा सकता। उसके निष्क्रिय क्रियाएं शिक्षार्थियों  को गुमराह करती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्र का भविष्य अंधेरे में खो जाता है।
उचित शिक्षा व्यवस्था प्रदान करने के लिए शिक्षा को आदर्श पाठ्य क्रमो से युक्त करना होगा क्योंकि शिक्षा केवल ज्ञानार्जन का माध्यम ही नहीं अपितु संस्कार संस्कृति का माध्यम भी है।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उ०प्र०)

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