तन्हा हो गया हूँ - कविता - शेखर कुमार रंजन

दुख हो या सुख दोनों को ही,
अपनों में बाँट लिया करते थे
बड़ो का हमेशा इज्जत करते,
बदले में प्यार लिया करते थे।

मन ना मलिन था तब,
हृदय भी कोमल व स्वच्छ था
न डर किसी बात की ना ही,
लोभ कुछ भी पाने की थी।

भले ही खातें थे चीनी रोटी ही,
पर बड़ी चाव से खाया करते थे
हँसते-खेलते अपने धुन में ही,
हम तब भी गीत गाया करते थे।

सन्तुष्ट थे तब थोड़े खाकर ही, 
माँ के आँचल में सोकर ही
अपने बचपन में खोकर ही,
सिसक-सिसक के रोकर ही।

तब न चिंता थी कोई बात की,
जरूरत होती अपनों के साथ की
पढ़ाई करते थे सभी साथ बैठकर,
यह बात होती थी हर रात की।

घर पक्का मकान का नहीं था,
तब हम छप्पर वालें से भी खुश थे
नहीं थी कुछ भी पर फिर भी हम,
अपने गरीबी से ही बहुत खुश थे।

आज कितना भी पैसा कमा लूँ,
फिर भी बहुत कम लगता हैं
तब चंद पैसों से हम अपनी, 
जेब भर अमीर हुआ करते थे।

अकेला हो गया हूँ मैं आज, 
कई अपनों के भीड़ से
हर चेहरा लग रहा है आज,
बिल्कुल ही अजनबी सा।

ना ही रोया जा रहा है,
ना ही हँसी आ रही हैं
अपने खामोशी में ही मुझे,
अपनी चींख सुनाई दे रही हैं।

पा लिया हूँ आज बहुत कुछ पर,
रूठ कर सुकून कहाँ चला गया
ऐसा लगता है कि जिंदगी की,
भीड़ में अकेला सा हो गया हूँ।

शेखर कुमार रंजन - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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