शर्मसार करता है - ग़ज़ल - आलोक कौशिक

मानव ही मानवता को शर्मसार करता है 
साँप डसने से क्या कभी इंकार करता है

उसको भी सज़ा दो गुनहगार तो वह भी है 
जो ज़ुबां और आँखों से बलात्कार करता है

तू ग़ैर है मत देख मेरी बर्बादी के सपने 
ऐसा काम सिर्फ़ मेरा रिश्तेदार करता है

देखकर जो नज़रें चुराता था कल तलक 
वो भी छुपकर आज मेरा दीदार करता है

दे जाता है दर्द अक़्सर वही ज़माने में 
अपना मान जिसपर दिल ऐतबार करता है

मुझको मिटाना तो चाहता है मेरा दुश्मन 
लेकिन मेरी ग़ज़लों से वो प्यार करता है 

आलोक कौशिक - बेगूसराय (बिहार)

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