तैयार हूँ मैं जान लुटाने के वास्ते।
नग़में खुशी के लब पे सजाने पढ़े मुझे,
मज़लूमियत को अपनी छुपाने के वास्ते।
औरों की ख़ामियों को गिनाता चला गया,
मैं अपनी ख़ामियों को छुपाने के वास्ते।
करनी पड़ीं मशक़्क़तें ज़ालिम हवाओं को,
घर के मिरे चिराग़ बुझाने के वास्ते।
सब कोशिशें फ़ुज़ूल हैं मुझको मिटाने की,
मैं वक़्त हो गया हूँ ज़माने के वास्ते।
"शारिब" उठेगा कौन अब इंसान के सिवा,
इंसानियत की लाज बचाने के वास्ते।
अब्दुल जब्बार "शारिब" - झाँसी (उत्तरप्रदेश)