उम्र का फर्क - कविता - सैयद इंतज़ार अहमद

बच्चे बड़े हो जाते हैं, ख़्याल उनके फिर बदल जाते हैं,
दुनिया लगती है मुट्ठी में, उसी को बदलने लग जाते हैं,

कोई समझाये उनको कुछ तो लगता न उन्हें है अच्छा,
बस इर्द गिर्द घूम रहा कुछ दोस्त लगता है उन्हें सच्चा,

अक्सर बाप-बेटे में भी रहता है तनाव,
उम्र का फर्क जो ठहरा,
चाहे कुछ भी कर ले कोई,
रिश्ता न हो पाता है गहरा,

फिर जब वे खुद बड़े हो जाते हैं और झेलते हैं,ठीक 
वैसे ही हालातों को,
अपने से छोटे उम्र के लोगों के बेमेल जज्बातों को,

तब याद आता है उन्हें अपने से बड़ो का चेहरा,
किया गया सलूक,बेतुका पहनाया गया सेहरा,

ठोकर लगती है बार-बार, घायल होते हैं उनके जज़्बात,
पिता की करने लगते हैं सेवा और मानने लगते हैं 
हर बात,

वास्तव में वो कर रहे होते हैं प्रायश्चित,
अपने उन व्यवहारों का
जो उन्होंने किया था कभी,
समझाया था अग्रजो ने, 
दिया था हवाला तज़र्बों का सभी,

और पिता को लगता है कि देर से ही सही मेरे बच्चे में परिपक्वता तो आई,
लेकिन ये तो असर है, उम्र के इजाफे का,
जिसने उनमें सोचने की शक्ति है लाई।

सैयद इंतज़ार अहमद - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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