पीड़ा - कविता - मयंक कर्दम

ज़ख्म कुछ भरे नहीं, आंखें फिर नम हो गई।
खुली पलके राह में, तुझे बिन निहारे सो गई।

मेरे आंसू की वर्षा में, कब बदन गीला हुआ,
तुझे पाने की आरजू़ में, कब सुबह हो गई।

इबा़दत करते हम उनसे, गश़ में स्याई ठहरी,
जाने कब कलम, शायरी के शिकार हो गई।

साहिल दरिया का तू, कीमत न तूने समझी,
आंसू उलझते हैं, क्या मुझसे ख़फा हो गई।

इख्लास से धूत, फिर पुतली आंसुओं से भरी 
महोब्ब़त खेल मे, हर पीड़ा बदनाम हो गई।

पल-पल यू बहे मोती, खुशी आज गम में हैं, 
चांदी आज सोने से ज्यादा मशहूर हो गई।

बैठे  इराशद  में उनके, आंचल लिए हुए, 
खंजर सीने में, कब्र में सोने की उम्र हो गई।

मयंक कर्दम - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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