लाचार लेखक - कविता - सलिल सरोज

मैं रोज़ कुछ लिखता हूँ
और भूल जाता हूँ कि
कल क्या लिखा था
क्या विषय था मेरे लिखने का
और किस कारण मैंने ऐसा लिखा था

मेरी उस कविता से कितना कुछ बदल गया
और कितनी बेहतर स्तिथि में पहुँच गया ये समाज
जिस में मैं रहता हूँ
और जिसे रोज़ कोसता हूँ
इसकी नपुंशकता के लिए
इसके मरे होने के लिए
जहाँ कुछ भी बदलता नहीं
और बदलता है तो
सिर्फ चन्द लोगों के लिए
जो शक्ति के स्वामी हैं
जिन्हें छूट है अपनी मनमानी की
जो रोज़ संविधान में संशोधन का माद्दा रखते हैं
जिन्हें समझ है धन के इस्तेमाल का
और जाति,धर्म,अशिक्षा,गरीबी,बेरोज़गारी की राजनीति का

क्या इन सब में फँस कर
मेरी कविता उसी रूप में पढ़ी,देखी और समझी जाएगी

जैसा कि मैं लिखता हूँ
या किसी दिन रोड पर पड़े
बेनाम लाश की तरह
मुर्दाघर में फेंक दी जाएगी
या किसी बच्ची की तरह
इसकी भी इज़्ज़त लूट ली जाएगी
और खुले बदन छोड़ दिया जाएगा तमाशा बनने के लिए
बीच बाज़ार में
या किसी दिन सदन में ये बहस होगा
की ऐसी कविताएँ क्यों रची जाती हैं
कौन है इसका लेखक
और क्या उसका संबंध
वर्ग-विभाजन और राष्ट्रद्रोह से

और
मेरी कविता लिखने की
क्षमता पर प्रश्न उठाकर
मेरी प्रतिभा पंगु कर दी जाएगी
फिर
किसी गुमशुदा जगह पर फटेहाल मैं मिलूँगा
और बदनाम हो जाएगी
मेरी वो कविता
जो कई रात जाग कर
बीवी से झगड़ कर

और बच्चों के हाथों से
फटने से बचाके लिखी थी
आँखों के नीचे काले गढ्ढ़े
और बालों की सफेदी
इस बात की साक्षी हैं कि
मैने अपना खून जलाया है,
स्वेद बहाया है
और
खुद को खोया है
इस कविता के निर्माण में

पर अब मैं सत्य समझ चुका हूँ
कि
सत्य वो नहीं
जो मैं अपनी कविताओं में लिखता हूँ
बल्कि हर एक का सत्य अलग है
जो हर कोई अपनी सहूलियत से मेरी कविता से निकालता है
और छोड़ जाता है
मेरी कविताओं में
एक सड़ी हुई लाश
और उस लाश से घिरा
मुझ जैसा उसका लाचार लेखक

सलिल सरोज - मुखर्जी नगर (नई दिल्ली)

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