नित वसन्त पतझड़ परे - दोहा - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

चाहत   सम    पर्वत  शिखर , करे नहीं   संघर्ष।
धीरज     साहस  आत्मबल, बिना नहीं  उत्कर्ष।।१।।

मधुशाला     संघर्ष    का , तिक्त   पान   आनंद।
सृजन   लोक नव जिंदगी , पुष्प पराग मकरन्द।।२।। 

आवश्यक    है     हौंसला, आरोहण     सोपान।
निर्भर  नित  तप साधना, सुख  वैभव यश मान।।३।।

बने   सदा    हम  साहसी, मौन    धीर    गंभीर।
संकल्पित  निज   ध्येय हो , एक  दृष्टि रण वीर।।४।।

क्रोध , लोभ   निज  हीनता , तजें रखें  विश्वास।
समय सुधा रस पान का, निश्चय  हो    आभास।।५।।

सुलभ   प्राप्त  यश  सम्पदा , कहाँ मिले आनंद।
तपे स्वर्ण जब अग्नि में,शोभित मणि कर कण्ठ।।६।।

बनो   पार्थ   विश्वास  सम , करो  लक्ष्य का भेद।
जीतोगे  हर     लक्ष्य   को ,  रहो   शान्त  संवेद।।७।।

सोचें    परहित    कर्म  को , राष्ट्र धर्म    उत्थान।
सार्थक  जीवन हो  तभी, त्याग शील  बलिदान।।८।।

युगधारा  जीवन  सरित , सुख  दुख  मानो तीर।
ऊँच  नीच   जीवन  मरण ,  जीते  वे    रणवीर।।९।।

जीवन   है   अनमोल  धन ,  है  निकुंज  संदेश।
नित वसन्त पतझड़ परे , नव अरुणिम परिवेश।।१०।।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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