भरोसा - कविता - शेखर कुमार रंजन

इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं
मैंने अपनों पर भरोसा कर एक योजना बनाई
बार- बार उस योजनाओं पर बातें की
और उसने एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया।

इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं
मुझे कुछ इंसानों ने कहा मैं आपका अपना हूँ
आप मुझे योजना बताओ मैंने खुशी-खुशी बताया
और उसने कान से सुनकर मुँह से निकाल दिया।

इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं
मैंने उस पर इतना भरोसा किया कि
उसका हर झूठ मुझे सच ही लगता रहा
और सच ने झूठ का मुखौटा निकाल दिया।

इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं
उसने अपनी मीठी-मीठी शब्दों से
मेरे भरोसे को मजबूत करता गया
और उसने अगले ही पल मेरी गलतफहमी दूर कर दिया।

इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं
वो बातें बहुत बड़ी-बड़ी करता था
मुझे लगा निभाना भी आता होगा
और उसने मुझे थोड़ी देर में ही गलत साबित कर दिया।

इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं
मैंने बस एक ही गलती की थी
वो बोलता गया और मैं उस पर भरोसा करता गया
और वो जो करता था उस ओर मैंने ध्यान तक नहीं दिया।

इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं
एक दिन ऐसा था उसे चलना नहीं आता था
मैंने उसे चलना क्या? सीखा दिया
उसने तो मेरी अपाहिज होने की अफवाह फैला दिया।

आखिरकार इंसान किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं।


शेखर कुमार रंजन - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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