दिनों का फेर - कविता - भरत कोराणा

मै गरीब था जनाब
कोसों तक राह पर
तलवे फोड़ते गाँव आया
यह दिनों का फेर था। 
हम बैठें है 
चिड़ियाघर के
उदास हाथी की तरह
जिसे बाँस नही मिल रहा। 
कितनी मुद्दते धन जोड़ा था
पाई- पाई करके
सोचा था
इस सर्दी मे 
बाबा की बंडी बनाऊंगा
पर समय की मार
महंगाई डायन ने छिन लिया धन। 
यही भी सोचा की
माँ को कांच वाली चूड़ियाँ 
बहुत भाती है 
और मखमली सालू के साथ 
जब रखूँगा एक साथ
आँचल में माँ के 
मखमली सालू ,
कांच वाली चूड़ियाँ 
तब कितनी खुश होगी
वो बूढ़ी अंगुलिया
पर सब ख्वाब मिट गए
जैसे आकाश में इंद्र धनुष का।
क्युकी यह दिनों  का फेर था। 

भरत कोराणा - जालौर (राजस्थान)

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