उलझे हो - ग़ज़ल - रोहित गुस्ताख़

तुम अभी तक हम ही में उलझे हो,
क्यूँ तुम गलतफहमी में उलझे हो,

हम मौत से मिलके वापस आ गए,
तुम अभी तक ज़िन्दगी में उलझे हो,

तुम रहबर हो फरिश्तों के गुस्ताख़,
क्यों पागल आदमी में उलझे हो,

यार अब नही रहता वो इस गली में,
बेसबब तुम आशिकी में उलझे हो,

कर ली दुश्मनों ने सूरज से दोस्ती,
तुम जुगनुओं की रौशनी में उलझे हो,

इतनी नफरत भी अच्छी नही गुस्ताख,
वो रो रही तुम शाइरी में उलझे हो।।

रोहित गुस्ताख़ - दतिया (मध्यप्रदेश)

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