इसीलिए गाँव लौट आये हैं - कविता - सैयद इंतज़ार अहमद


दिल में लिए एक आस,सपने नयन में थे,
जब हम गए परदेस,अपनो को छोड़ के,
गांव की याद आती थी, हर पल हमें वहां,
रहने लगे बेफिक्र हम, मुँह सबसे मोड़ के।

सड़को की भीड़ भाड़,बिजली की चकाचौंध,
सब था नया,फिर भी,हम हो गए अभ्यस्त,
दिन रात एक करके, करने लगे हम काम,
जज्बा था अपना ऐसा, न हो सका ये पस्त।

दो वक्त की रोटी के अलावे,जाता था जो बच,
घर भेजते रहे,अपने बच्चों के वास्ते,
उनको पढ़ा लिखा कर,यही चाहते थे हम,
कि चल सके वो अपनी,जिंदगी के नेक रास्ते।

सबकुछ था ठीक ठाक, लेकिन ये क्या हुआ,
ऐसी चली हवा,कि कुछ सोंच न पाए,
देकर पसीना अपना, हमने सींचा था जिन्हें,
हालात ए भुखमरी में भी, वो काम न आये।

टूटे हुए दिल और, बिखरे हुए सपने, 
किस्मत को भी अपने,हम साथ लाये हैं,
ईश्वर ही जाने क्या हो,अंजाम ए वापसी,
इसलिए गांव लौट आये हैं,
इसीलिए गांव लौट आये हैं।

सैयद इंतज़ार अहमद
बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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