हक़ीक़त तो कुछ और थी - कविता - कुमार सौरव


आज मालूम पड़ा गनीमत 
हक़ीक़त तो कुछ और थी 
   तेरे हर एक अश्क़ की 
   सूरत तो कुछ और थी 
     यू सासों का थमना
    रूह जा तिलमिलाना
  हमसे हमे जुदा करने की 
   तेरी साज़िश बेजोड़ थी 
 आज मालूम पड़ा ग़नीमत 
 हक़ीक़त तो कुछ और थी ।

        सहमा, डरा देखता हर गली 
आने की तेरी दस्तक़ को समझता असली 
     पर भूल जाता हूं मैं फ़ितरत तेरी 
  मुरकर ना देखना तेरी आदत में जोड़ थी 
          आज मालूम पड़ा ग़नीमत 
          हक़ीक़त तो कुछ और थी ।

 पंखों का हिलना मद्धम-मद्धम सा 
सरसरी रौशनी का आना साथ पवन 
 हम घूमे गलियो में आवारा हरपल 
 यहा खाली दीवारों में भी शोर थी 
     आज मालूम पड़ा ग़नीमत 
      हक़ीक़त तो कुछ और थी ।


कुमार सौरव - सीतामढ़ी (बिहार)

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