बापू देव पुरुष ही थे - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

ये कविता एक पुत्री के द्वारा उसके महान साहित्यकार एवं क्रांतिकारी पिता  के प्रति भावनाओ की अभिव्यक्ति का माध्यम है।
स्व. डॉ देवव्रत दीक्षित जी को समर्पित

नामदेव था कर्म देव से ,
बापू देव पुरुष ही थे।
जितने सरल मृदुलता उतनी,
बापू देव पुरुष ही थे ।
मात-पिता के अंधभक्त थे,
गुरुजनों के पूजक थे ।
प्यारे बंधु बहन भाई के ,
अपने कुल के भूषण थे ।
पत्नी के थे ऐसे प्रेमी ,
जैसे राम सिया के थे ।
अहंकार का नाम नहीं था,
कोमल सरल  हिया के थे। 
कृष्ण सुदामा सी ही मैत्री,
उनकी मित्र जनों से  थी ।
थे शुभ चिंतक सखा जनो के ,
उनकी यही  प्रकृति  ही थी।
वरद हस्त था  गुरुजनों का ,
प्रथम  सदा ही आए थे ।
श्रमजीवी  बन जीवन जीना,
सबको यही दिखाये थे ।
कूट कूट कर भरा हुआ  था ,
देश प्रेम  उनके मन में ।
सत्याग्रह के  वीर व्रती थे ,
लिए  उमंगे तन मन में ।
मान पिता की  परम आज्ञा ,
कूद पड़े आंदोलन में ।
गये राष्ट्रहित छोड़ पढ़ाई,
गांधी के  सम्मोहन में ।
कारावासी जा बन बैठे ,
बचपन पूर्ण हुआ भी ना।
सुत होने का ऋण चुकता कर,
गदगद किया पितृ सीना ।
कर्तव्यों से विमुख कभी भी 
हुए नहीं मेरे बापू ।
थे प्रियदर्शन मात-पिता के ,
अति भावुक मेरे बापू ।
सरस्वती के परम उपासक,
वेद पुराणों के ज्ञानी ।
सदा संगिनी कविता उनकी ,
गायन सुगम मधुर वाणी ।
प्रकृति प्रेम से भरा हुआ था,
उनका सारा जीवन ही।
फसल -फूल फल औ पशु पंछी,
हरते थे उनका मन ही ।
दुग्धपान  व्यायाम हमेशा ,
यही नियम जीवन  का था ।
पशु पंछी  भी सहवासी थे ,
यही सदा उनका मन था।
जीवन के दुर्बल क्षण  में भी ,
संयम कभी गया ही ना।
धैर्यवान  बन  डटे रहे वह ,
सार्थक  किया जन्म अपना ।
जीवन की अंतिम बेला में भी,
बिखराई निर्मल मुस्कान ।
चलते चलते चले गए वह ,
मेरे बापू  महा महान ।
नाम देव  था कर्म देव से ,
बापू  देव पुरुष ही थे । 
जितने सरल मृदुलता उतनी ,
बापू देव पुरुष ही थे ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला

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