समझ के पागल मुझको समझाने आए हैं लोग - ग़ज़ल - अशोक योगी


समझ के पागल मुझको समझाने आए हैं लोग
मै पीता हूं उजालों में अंधेरों में  मस्ताए हैं लोग ।

दैर-ओ-काबा को समझा मैंने अपनी मधुशाला
हव़स  अपनी  मिटाने  मैकदे़ में  आए  हैं  लोग ।

इबा़दत की मैंने मय ए शुरूर में तो गुनाह हो गया
ज़हर ए जा़म  लेकर जि़यारत  को  आए हैं लोग ।

समझता रहा सीधी राहें जिन पथरीली राहों को मै
उन  राहों  में  बैठे अक्सर   जाल  बिछाएं हैं  लोग।

अपनी शर्तो  पर ज़िंदा  रहना इतना  आसान कहां
ज़माने से  अक्ल का  खज़ाना  खोज़ लाए हैं लोग ।

आलिम  बना  फिरता  है  पर  है  बड़ा  ज़ाहिल तू
अब  जीने का  ढंग मुझको  सिखाने  आए हैं  लोग।

मेरे  इख़्लास   को  समझा  किसी ने  कब  या  रब
अब तो  तेरी  हस्ती  भी  मिटाने  चले  आए हैं लोग।

गुना़ह ए सगी़रा की गुस्ताख़ी की होगी "योगी"ने कभी
मग़र गुऩाह ए क़बीरा की तोहम़त लगाने आए हैं लोग।

अशोक योगी
कालबा नारनौल

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