एक दर्द - कविता - मयंक कर्दम


उभर जाता है,
"एक दर्द"
हंसते हुए सीने में।
वक्त बयान दे रहा था, 
चिल्लाते हुए,
मगर व्यस्त था,
अपने आंसू छिपाने में।
बटोरना चाहा संसार को,
आंसुओं की बारिश में,
झंझोर कर 
रख दिया उसने भी
हौसला बुलंद था।
मगर तड़पन अधूरा लगा,
कुछ पल खामोश रहा,
चारों तरफ भीड़ देखकर।
अफरा-तफरी मची खूब,
रोते आए मेरे लिए सब,
खिदमत का अफसर,
एक दर्द ने दिया। 
महज़ एक दर्द,
जागना जरूरी था।


मयंक कर्दम
पता-मेरठ(उ०प्र०)

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