बहार बनके आई दोस्ती - कविता - कवि कुमार निर्दोष


बहार बनके आई दोस्ती
               कि जिसने हँसना हमें सिखाया!
जो प्यार दिल ही में मर चुका था,
               वो प्यार फिर से जिंदा बनाया!
हुई थी पतझड़ ये मेरी दुनिया
               था सीने में दिल भी मेरा बंजर
इस बंजर से दिल में देखो यारो
               फूल मोहब्बत का है खिलाया
गम के अंधेरों में जी रहा था
               न प्यार की थी कहीं रोशनी
वो प्यार बन के आई दोस्ती
               दिया प्यार का फिर जगमगाया
गया था हँसना मैं भूल कब का
               न खुशियाँ थी मेरे पास कब से
पर दुखते दिल को जब उसने चूमा 
               तो फिर से "निर्दोष" मुस्कुराया


कवि कुमार निर्दोष

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