दिशाहीन पथिक - कविता - प्रवीन 'पथिक'

दिशाहीन पथिक - कविता - प्रवीन 'पथिक' | Hindi Kavita - Dishahin Pathik - Praveen Pathik
कुछ विचित्र-सा हो गया हूॅं मैं!
कुछ चकित, द्रवित, अन्यमनस्क-सा।
स्मृतियाॅं पीछा नहीं छोड़ रही मेरा
प्रश्न कभी उलझ के रह गए थे।
भावनाओं में, या सामाजिक भय से
पर, आज गुत्थी सुलझ गई है।
उत्तर, आईने की तरह साफ़ हो गया है।
सोचता हूॅं–
यह उत्तर उस समय क्यों नहीं मिला।
जब उलझने काली घटा-सी,
घिर आई थी जीवन में।
मन, किसी दुर्गम खंडहर के कोने में क़ैद था।
जहाॅं से मेरी आवाज़;
न तो कोई सुन नहीं सकता था। 
और न ही मेरी वेदना को,
समझ ही सकता था।
आज भी, 
मनःस्थिति कुछ वैसी ही है।
जो तत्क्षण थी।
अब चीख़ता हूॅं, चिल्लाता हूॅं;
दूसरे पर या ख़ुद पर
समझ नहीं पाता।
मैं यह भी नहीं समझ पाता,
कि यह मैं हूॅं या कोई और।
मेरा संयम टूटता जा रहा है
मैं डूब रहा हूॅं;
अपने ही विचारों के गहरे सागर में।
आँखें मूंद रही हैं;
अतीत के किसी भयानक स्वप्न से।
एक चुभन-सी हो रही है,
हृदय के किसी कोने में।
अनवरत् बरस रहा है बादल
बाहर भी और अंतः में भी।
भीग रहा है–
स्नेहसिक्त वसुधा का ऑंचल 
और लक्ष्य की खोज में भटकता
दिशाहीन पथिक भी।
इस प्रलय वृष्टि के बाद
दोनों विश्राम चाहते हैं।
पुनः एक नई दुनिया रचने के लिए
जो नितांत नई हो!
जहाॅं प्रश्न जैसा कुछ भी न हो।
या कहूॅं कि–
जहाॅं पहुॅंचकर स्मृतियाॅं पीछा छोड़ दे।
या पथिक को वह ऑंचल मिल जाए
जहाॅं उसकी यात्रा समाप्त होती है;
पूर्णतया। 


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