मैं पीले साँप की जात में शामिल हो गया हूँ - कविता - सुरेन्द्र जिन्सी
सोमवार, जुलाई 07, 2025
रात को सोया तो लगा जैसे बिस्तर कोई पुराना जंगल हो
उसमें रेंगते हैं मेरे अपने पाप,
मेरे ही पसीने से नम हुई घास,
और एक पीला साँप —
ठीक मेरी करवट के नीचे,
जैसे कोई अधमरा सपना जो अब तक मरा नहीं।
मैं लेटता हूँ, वह कुचलता जाता है,
हर बार मैं करवट बदलता हूँ
तो उसकी हड्डियाँ चटखती हैं मेरे भीतर,
जैसे किसी स्त्री की चीख़ हो जो कभी पूरी नहीं हुई।
साँप की चमड़ी अब रबर की तरह मेरी पीठ से चिपक गई है,
वह न धुलती है, न झड़ती है,
बस धीरे-धीरे रंग छोड़ रही है —
पीला, उदास, मवाद सा रंग
जो ख़ून के साथ नसों में दौड़ता है
और फिर दिल के कोनों में थूक की तरह जम जाता है।
माँ कहती थी, सपने में साँप दिखे तो मतलब होता है
कोई पुराना डर लौट आया है,
या फिर कोई देह अब बाँहों की जगह जहर बन गई है।
मैं माँ से कुछ नहीं कहता,
बस गर्दन झुकाकर रोज़ बिछा देता हूँ वही पुराना चादर,
जिस पर साँप रेंगता है
और मेरी नींद को छेद देता है।
रात में जब साँप मेरी छाती पर बैठता है,
उसका कटा हुआ सिर मेरी आँखों में झाँकता है —
जैसे किसी प्रेमिका का संदेश जो मर चुका है,
लेकिन उसकी आवाज़ अब भी मेरे होठों से टकराती है
क्योंकि मैंने उसे कभी ठीक से चूमा ही नहीं।
पीले साँप का मुँह अब मेरा मुँह बन गया है,
मैं बोलता हूँ तो शब्दों की जगह
फुसफुसाहटें निकलती हैं,
कोई मुझसे प्रेम की बात करता है
तो मैं उसे देखता हूँ जैसे माँस की गंध
और हँसते-हँसते अपनी जीभ दाँतों में काट लेता हूँ।
मेरे भीतर अब एक सर्प-कुटीर है —
छोटा सा, अँधेरा,
जिसमें साँप अपने बच्चों के साथ सोया है।
हर बच्चा मेरी किसी अधूरी स्मृति से जन्मा है,
किसी कविता की अधकटि पंक्ति से,
या किसी स्त्री की पीठ पर उभरी हल्की नीली नस से
जिसे मैंने कभी सहलाया था।
मैं रोज़ ख़ुद को आईने में देखता हूँ
और मेरी आँखों की पुतलियाँ गोल नहीं, लम्बी हो गई हैं।
मेरे होठों के किनारे अब सूखे नहीं,
बल्कि फटे हुए हैं —
जैसे मैं अब चूमने की नहीं, काटने की भाषा जानता हूँ।
मेरे शर्ट के कॉलर के नीचे
चमड़ी झड़ रही है परत-दर-परत,
मानो हर दिन एक नई साँप-जैसी त्वचा उग रही है,
और हर बार मैं थोड़ा और गुम हो जाता हूँ
अपनी पुरानी देह से,
अपने पुराने दुःखों से
और उस लड़के से जो किसी समय
सिर्फ़ कविताओं से डरता था।
अब मुझे लोग देखते हैं और कहते हैं —
"तुम कुछ बदल गए हो"
मैं कहता हूँ, "हाँ, शायद थक गया हूँ..."
लेकिन असल में मैं अब इंसान नहीं रहा।
मैं एक मिथक हूँ,
एक मांसल भाषा में लिखा गया
पीले ज़हर से भीगता वाक्य
जो किसी और की आत्मकथा में
ग़लती से घुस आया है।
एक बार एक स्त्री ने मेरे गले पर उंगलियाँ फिराई थीं
और कहा था —
"तुम बहुत गरम हो, तुम्हारे भीतर कुछ सुलग रहा है..."
मैंने कुछ नहीं कहा,
क्योंकि मैं जानता था,
वह जो सुलग रहा है,
वह कोई वासना नहीं,
बल्कि साँप की साँस है
जो अब मेरी श्वासों में शामिल है।
मैं जब-जब लिखता हूँ,
मेरे शब्द पीले हो जाते हैं,
उनमें कोई मीठा रस नहीं होता
बस एक चिपचिपी लार होती है,
जो पन्नों को गीला कर देती है,
जैसे कोई मृतक अपनी आत्मा को
किसी कवि के हाथों में सौंप देना चाहता हो।
अब मेरे स्पर्श में गर्मी नहीं,
बल्कि एक सर्द फिसलन है —
जिससे लोग पीछे हटते हैं
लेकिन कुछ पागल लोग आगे बढ़कर
मुझे छूना चाहते हैं
क्योंकि वे जानना चाहते हैं —
कि कोई साँप कैसे बनता है इंसान से,
और कैसे वह इंसान रहते हुए
एक साँप की तरह जीता है।
सुबह जब नींद खुलती है,
तो लगता है सब सपना था —
बिस्तर खाली है, साँप नहीं है,
लेकिन मेरी पीठ पर वही पीलापन है,
मेरी जीभ में वही स्वाद
और मेरी आँखों में वही चमक
जो किसी शिकारी की होती है।
मैं अब साँप नहीं देखता —
मैं साँप हूँ।
और जब-जब प्रेम करूँगा,
उसकी साँसों में
थोड़ा ज़हर छोड़ता जाऊँगा
ताकि वह भी जाने,
कि कभी कोई कविता
एक साँप से प्रेम कर बैठी थी
और अब उसकी आत्मा भी
पीली हो चुकी है।
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