पिता: एक अनकहा संवाद - कविता - सुशील शर्मा

पिता: एक अनकहा संवाद - कविता - सुशील शर्मा | Hindi Kavita - Pita Ek Ankaha Samvad - Poetry On Father. पिता पर कविता
पिता 
कोई शब्द नहीं है,
न ही कोई सम्बन्ध भर।
वह तो एक अनदेखा प्रतिबिम्ब है
जिसे हम तभी पहचानते हैं
जब वह ओझल हो जाता है।

वह जन्म नहीं देता,
पर जीवन देता है।
वह कोख नहीं है,
पर कवच है।
स्नेह नहीं बरसाता,
पर छांव सा ठहरता है
एक बरगद बनकर।

पिता होना
कोई सहज उपलब्धि नहीं,
यह तो एक यात्रा है
जनक से पिता बनने की।
जहाँ कोई तालियाँ नहीं बजतीं,
कोई आरती नहीं सजती,
सिर्फ़
प्रत्येक उत्तरदायित्व की परत में
एक मौन त्याग
चुपचाप भरता जाता है।

वह उंगली थाम कर चलाता है
पर धीरे से छोड़ देता है
जब तुम्हें पंख मिलते हैं।
वह पीठ पीछे चलता है
ताकि तुम्हारा आत्मविश्वास
कभी लड़खड़ाए नहीं।

पिता वो है
जो आधी रात के आकाश में
जले हुए बल्ब सा
बदलता रहता है स्वयं को
बिना शोर,
बिना प्रतिरोध।

जब तुम्हारे शब्द कम पड़ते हैं,
वह अपनी चुप्पी से
तुम्हारा मन समझ लेता है।
जब तुम टूटते हो,
वह अपने भीतर से
तुम्हारे लिए संबल उगाता है।

वह ग़ुस्से में दिखाई देता है,
कठोरता में चुभता है
पर भीतर
हर डाँट में छुपा होता है
एक अकथ प्रेम,
एक अव्यक्त सुरक्षा।

और विडंबना यह है
कि माँ की ममता
तुरंत पहचान ली जाती है,
पर पिता का प्रेम
कभी घुल जाता है ज़िम्मेदारियों में,
कभी खो जाता है
रोज़गार की कड़वाहट में।

बहुत कम लोग जानते हैं
पिता रोते हैं।
हाँ,
कभी अलमारी के पीछे,
कभी छत पर,
कभी तुम्हारे फ़ीस की रसीद के पीछे
सिसकियाँ दर्ज़ होती हैं
बिना आँसुओं के।

वह कभी थकते नहीं,
या थकने का हक़ नहीं माँगते।
वे रिटायर होते हैं दफ़्तरों से,
पर जीवन से नहीं।

पिता
एक ऐसा अहसास है
जो प्रायः अनुपस्थित दिखता है,
पर उसका होना
हर सफलता, हर संघर्ष में
गूँजता है 
कभी एक पुरानी घड़ी की टिक-टिक में,
कभी एक फ़ोन कॉल
के “कैसे हो बेटा?” में।

हर जनक पिता नहीं होता,
क्योंकि जनना सरल है,
पर निभाना कठिन।
पिता बनना
अपने सपनों को
दूसरे के भविष्य के लिए गिरवी रख देना है।

आज इस पितृ दिवस पर,
मैं झुकता हूँ
उन सभी चुप्पियों के सामने,
जिन्होंने एक जीवन को
संरक्षित किया।
उन आहों के सामने
जिन्होंने मेरी हँसी की क़ीमत चुकाई।

और अपने भीतर के उस अहसास को
पहचानता हूँ
जो सदैव साथ था
कभी एक सलाह में,
कभी एक इन्कार में,
कभी बस चुपचाप
रात में लौटते उस क़दमों की आहट में।

पिता तुम कहीं नहीं थे,
फिर भी हर जगह थे।
आज मैं तुम्हें
अनुभूति से प्रणाम करता हूँ।

सुशील शर्मा - नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)

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