अधूरे शब्द - कविता - प्रवीन 'पथिक'

अधूरे शब्द - कविता - प्रवीन 'पथिक' | Hindi Kavita - Adhure Shabd - Praveen Pathik
धुंधलका होते ही
बनने लगती विरह की कविताएँ
एक छवि तैर जाती है ऑंखों में
दिनभर की बेचैनी, आक्रोश, तपन
केंद्रित हो जाती है–
उस विरही कविताओं में।
मानस में बनने लगती,
अनेक पंक्तियाँ।
उठने लगते असंख्य विचार,
उस दुर्दिन के।
लिखने बैठता तो,
कविताएँ भूल जाती।
शब्द ओझल हो जाते।
विचार उलझ के रह जाते;
और यादें अधूरी रह जातीं।
फिर होता है–
एक घोर अँधेरा!
आँखें केंद्रित हो जाती,
किसी अदृश्य बिंदु पर।
मन थक के सो जाता है,
जैसा हुआ ही नहीं हो।
शांत, चिंतारहित।


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