धुआँ-धुँध - कविता - आनंद त्रिपाठी 'आतुर'

धुआँ-धुँध - कविता - आनंद त्रिपाठी 'आतुर' | Hindi Kavita - Dhuaan Dhundh - Anand Tripathi Aatur
धुआँ-धुँध हर तरफ़ बढ़ रहा छाया है अँधियारा,
उठो कवि एक सृजन करो अब लिख दो तुम एक नारा।

भारत की जलवायु लिखो तुम नदियों का परिवर्तन लिख दो,
स्वार्थ परायण कैसा मानव इसका अंतर्मन तुम लिख दो।

प्रकृति विनाशक हो जाएगी ऐसे कहाँ रहोगे अब,
वृक्ष लगाना आज लगाओ नेकी कार्य करोगे कब।

ये अन्याय प्रकृति बेचारी कब तक यूँ ही झेलेगी,
बन विकराल काल एक दिन सुरसा सा मुँह यह खोलेगी।

दिन दुगुना है रात चौगुना चढ़ता क्यों ये पारा है,
धुआँ-धुँध हर तरफ़ बढ़ रहा छाया अब अँधियारा है।

तुम कबीर तुलसी के वंशज दुनिया को सदा जगाए हो,
बुझने लगा ज्ञान का दीपक तब-तब सदा जलाए हो।

अपने क़लम की प्रतिभा से तुम इस पृथ्वी की आफ़त लिख दो,
सरकारों के कार्य प्रणाली के तुम कभी ख़िलाफ़त लिख दो।

जैविक खेती को प्रोत्साहन गौ वंश की रक्षा हो,
मृदा परीक्षण समय-समय पर पर्यावरण परीक्षा हो।

कैसी दुनिया बढ़ेगी आगे मेरे मन में क्लेश यही,
इस प्रकृति का दोहन रोको बस मेरा संदेश यही।

ये आनंद अभी तक बैठा केवल यही विचारा है,
धुआँ-धुँध हर तरफ़ बढ़ रहा छाया अब अँधियारा है।

आनंद त्रिपाठी 'आतुर' - मऊगंज (मध्य प्रदेश)

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