क्या मेरे भी दिन फिरेंगे? - कविता - कार्तिकेय शुक्ल

क्या मेरे भी दिन फिरेंगे? - कविता - कार्तिकेय शुक्ल | Hindi Kavita - Kya Mere Bhi Din Firenge - Kartikeya Shukla
प्रश्न अभी भी हैं अनुत्तरित
क्या उनके उत्तर मिलेंगे?

प्रिय, सच-सच अबकी कहना
क्या मेरे भी दिन फिरेंगे?

मैं अकेला सोचता हूँ
रात-दिन बस बात यही,
क्या हमारे बाग़ में अब
फिर से नए फूल खिलेंगे?

प्रिय, सच-सच अबकी कहना
क्या मेरे भी दिन फिरेंगे?

ज़िंदगी की जंग को मैं 
लड़-लड़ कर थक चुका हूँ 
किस-किस का नाम लूँ
कि किस-किस से ऊब चुका हूँ

और अब इस रात्रि पहर में
नींद से भी जग चुका हूँ
सच कहूँ तो साथ अब
सारे साथियों का छोड़ चुका हूँ

किंतु क्या इससे दहक रहे
सीने के पत्थर पिघलेंगे?

प्रिय, अबकी सच-सच कहना
क्या मेरे भी दिन फिरेंगे?

कार्तिकेय शुक्ल - गोपालगंज (बिहार)

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