जंगली मन - कविता - सुनीता प्रशांत

जंगली मन - कविता - सुनीता प्रशांत | Hindi Kavita - Jangali Man - Sunita Prasant
इन हरे भरे जंगली पेड़ों जैसे
मैं भी हरी भरी हो जाऊँ
मनचाहा आकार ले लूँ
कितनी भी बढ़ जाऊँ
फैल जाऊँ दूर-दूर तक 
या आकाश को छू जाऊँ
रोकना न तुम
आँधी हो या तूफ़ान 
चाहे हो जाए अतिवृष्टि
सब सहलूँगी मैं
मुझे बढ़ने देना तुम
आए कोई बाधाएँ
या कोई हों सीमाएँ
घेरा वो तोड़ देना तुम
बहूँ किसी पहाड़ से
निर्झरिणी सी उन्मुक्त
बन जाऊँ कोई झरना
भर लेना अंजुली में या
जी भर के नहा लेना तुम
बनूँ अगर मैं मधु मालती
भर-भर गुच्छे सी लद जाऊँ
अपने आँगन में लगा लेना तुम
सजा लेना कमरे में
ख़ुशबू सी भर जाऊँगी मैं
रूप कोई भी हो मेरा
बस यूँ ही सराहना तुम

सुनीता प्रशांत - उज्जैन (मध्य प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos