मेरे कमरे की
खिड़की से आती रोशनी की किरण
प्रायः पूछती है मुझसे कि
क्या कर रहा हूँ मैं
पहरों बैठकर चुपचाप एकांत में
कभी निहारते घर की छत और दीवार को
किसकी छवि का सम्मोहन कर रहा हूँ मैं।
हाथ में क़लम लिए
और चुपचाप देखते
"बिखरे घर" का अस्त्त-व्यस्त सामान
और कभी कुछ लिखते-मिटाते
काग़ज़ के ह्रदय में रूग्ण ह्रदय की बात
क़िस्मत की लकीरों की तरह
क्यों इतना आकुल-व्याकुल हो रहा हूँ मैं।
विक्षिप्त चिंतन और उन्मादित क्षणों में
कभी घर की दीवारों से
कभी ख़ुद से
और कभी मेज़ पर बेसुध पड़ी किताबों से
ना जाने क्या बातें कर रहा हूँ मैं।
जो आज भी सच बोलते हैं
ऐसे कुछ बेज़ुबान पुराने ख़तों में
सरगोशी से गुफ़्तुगू करती तस्वीरों में
और कभी चिर यौवनअंतर्द्वंद में
दिलों दिमाग़ के स्याह अंधेरे में
ना मालूम क्या ढूँढ़ रहा हूँ मैं।
अज़ान की ख़ूबसूरत आवाज़
और मंदिरो से आती वेद ध्वनियों में
जो कुछ देर ही सही ख़ुद को ख़ुद से अलग करती है
जैसे कोई रूह जिस्म से अलग होती हो
क्यों हर रोज़ इत्मीनान से सुन रहा हूँ मैं।
अब रोशनी की किरण जा चुकी थी
घर, कमरे और दिल का स्याह अंधेरा अब भी था
उसके सवालों से सोचने को मजबूर मैं
ख़ुद से सवाल करने लगा
वास्तव में कुछ तो है जो मेरा था
और कहीं खो गया
शायद उसी को खोज रहा हूँ मैं
तभी दिल के सघन अंधेरे से आवाज़ आई
शायद ख़ुद में ख़ुद को तलाश रहा हूँ मैं।
सतीश पंत - दिल्ली