मिट्टी और कुर्सी - कविता - कर्मवीर 'बुडाना'

मिट्टी और कुर्सी - कविता - कर्मवीर 'बुडाना' | Hindi Kavita - Mittee Aur Kursi - Karmaveer Budana. मिट्टी और कुर्सी पर कविता
मिट्टी का ये मुझ सा
गुड़ बदन भौतिक स्वरूप,
मैं समय नहीं हूँ,
मिट्टी का एक डला सा हूँ बस
जिसे सबने जाना
ज़िंदादिल मास्टर कर्मवीर भूप।

मिट्टी की चरचराहट,
रड़क से सजा मेरा गोलमटोल आकार,
ठोकरों से, अनदेखी से
धरातल हो रहा ये सरकारी साहूकार।

मिट्टी का कुछ हिस्सा
पैरों की थपाक से उड़ाया गया,
तो मिट्टी के मुखमंडल को
फूँक मारकर हटाया गया।

चींटियों जैसा सोने सा
मित्र दल मेरी ओर आ रहा है,
लहू का कतरा-कतरा
सुराख सीने में जोड़े जा रहा हैं।

केवल इसी तरह मिट्टी,
मिट्टी का आलिंगन, सहेजें हुई हैं,
पर क्यों मिट्टी पर डाले गए है
भारी कुर्सी के चार पाए,
जहाँ जहाँ जुड़ा हुआ हूँ
खुरचा जाता हूँ, तकलीफ़ें हुई हैं।

गर कुछ इस तरह थपथपाए
कुर्सी, बदन मिट्टी का,
आहिस्ता-आहिस्ता अँगुलियाँ
चलाई जाए एक बच्चे की तरह,
गुदगुदी भरे एहसास से
खिलखिला उठेगी मिट्टी
और देखना; बना देंगी
सुंदर सा घरौंदा एक सपने की तरह।

यूँ ही चलाई लकीरें ऐसे दिखेंगी
जैसे चार लाईन की कॉपी में
कसिव लेखन में गृहकार्य दिया जा रहा है,
या एक बालक मिट्टी से गाल सटाकर
मुट्ठी भर पकड़कर मुझें
आकाश की ओर ब्रह्मांड से मिला रहा हैं।

पर क्यों होता हैं ऐसा जब मिट्टी के नरम बदन पर
कुर्सी ताक़त से पटकी जाती हैं,
सीने पर ठुक जाती हैं चार नुकीली कीलें,
और पैरों को झाड़ा जाता हैं, पटका जाता हैं मिट्टी के मुँह पर॥


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