जब संजना की आँख खुली तो उसने ख़ुद को एक अनजान कमरे में बिस्तर पर पड़े पाया, उसने हिलने की कोशिश की तो उसे महसूस हुआ कि उसके सारे शरीर में दर्द हो रहा था।
उसके पैरों को शायद पलँग के साथ बाँधा गया था, इसलिए वह पैर नहीं हिला पा रही थी। थोड़ा और होश आने पर उसने महसूस किया कि उसके कपड़े भी अस्तव्यस्त हैं...! अस्तव्यस्त ही नहीं उसके कपड़े उसके शरीर पर पहने हुए नहीं बल्कि पड़े हुए थे। वह हड़बड़ाकर उठकर बैठ गई और चीख़ कर बोली, "मैं कहाँ हूँ? और मुझे यहाँ कौन लाया?"
"यह जमनाबाई का कोठा है मेरी लाडो और तुझे यहाँ तेरी सहेली बेच गयी है..., पूरे डेढ़ लाख में। बड़ी कमीनी थी सा..., दो लाख माँग रही थी, मैंने कितना कहा कि लाख लेले लेकिन नहीं पूरे डेढ़ ही लेकर गई।
"क्या...? मेरी सहेली! लेकिन कौन सी?" संजना के मुँह से निकला और फिर ख़ुद ही अपना सिर अपने घुटनों में रखकर रोने लगी।
"आप कहाँ तक जाओगी?" ट्रेन में उसके बगल में बैठी उस अमीर सी दिखने वाली लड़की ने मुस्कुराकर पूछा था तो वह उसकी पर्सेनालिटी से बहुत इम्प्रेस हुई थी।
"मैं मुंबई जा रही हूँ, वहाँ मेरा जॉब इंटरव्यू है।" संजना ने भी मुस्कुराकर उत्तर दिया था।
"पहली बार मुंबई?"
"जी, मुंबई ही क्या मैं तो किसी भी बड़े शहर में ही पहली बार जा रही हूँ।"
"अकेली? वहाँ कोई रिश्तेदार या जानपहचान वाला?"
"घर में कोई है ही नहीं साथ आने वाला, पिताजी को काम पर जाना होता है और भईया अभी छोटा है। जान पहचान भी कोई नहीं है, ना ही वहाँ कोई रिश्तेदार।"
"कोई बात नहीं मैं हूँ ना, मेरा कितना बड़ा फ़्लैट खाली ही तो है, तुम जब तक चाहो मेरे साथ रह जाना आख़िर अब हम सहेलियाँ हैं।"
बस ऐसी ही वार्तालाप के बीच कब मुंबई आ गया संजना को पता भी नहीं चला।
मैंने तो बस उसके साथ कॉफ़ी पी थी एक जगह होटल में और उसके बाद...?"
उसके बाद क्या हुआ संजना को कुछ याद नहीं आ रहा था। वह महसूस कर रही थी तो बस अपने जिस्म की पीड़ा जिसे उसकी बेहोशी की हालत में बेरहमी से रौंदा गया था किन्तु जिस्म से अधिक इस समय उसका मन पीड़ित था, वहाँ खड़ा हर शख़्स संजना की हालत पर हँस रहा था और संजना अपने भाग्य और भूल पर पछता रही थी।
नृपेंद्र शर्मा 'सागर' - मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)