मानव और भगवन के,
द्वन्द में जब मन घिर आता है।
पौरुष और पुरुषार्थ पर
जब विस्मय हो जाता है।
पुरुष और पुरुषोत्तम में,
जब प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
तब-तब आराध्य हृदय
बस श्रीराम ही राम पाता है।
है कौन पुरुष जिसने
विमाता के वचन पर,
वन का वल्कल स्वीकारा था।
वो राम ही थे जिन्होंने छोड़ सिंहासन,
पिता का वचन निभाने गृह त्यागा था।
धर्म अधर्म के दौराहे पर,
जब-जब मानव विचलित होगा,
तब-तब राम चरित ही
मार्गदर्शक, सार्थक होगा।
जब शिव धनुष के टुटने पर,
परशुराम क्रोध उबल-उबल आते है,
सक्षम-सबल राम सहज नज़र आते है।
शूर्पनखा के परिणय प्रस्तावों कों,
जिसने मर्यादा के बंधन बाँधा था,
जो सौ योजन के दर्प सागर को,
सौ-सौ बार विनय अनुनय मनाते है।
जब क्रोध में लक्ष्मण अकुलाते है,
मर्यादा के धीर धरे बार-बार समझाते है।
विस्मय तो तब होता है जब,
बिन रघु सेना के भी रघुनन्दन–
केवल वानर भालू सेना के बल पर,
सौ योजन के सागर पर बाँधे सेतू,
दिग्विजयी रावण पर भारी पड़ते है।
विस्मय तो तब होता है जब मात्र चरण स्पर्श से,
अंधकार की अहिल्या के गौरव को लौटाते है।
विस्मय तो तब होता है जब,
अछूत केवट शबरी को सस्नेह गले लगाते है।
विस्मय तो तब होता है जब,
अधजली लंका में भी हनुमान को दूत की याद दिलाते है।
विस्मय तो तब होता है जब,
मर्यादा में भी पुरुषार्थ प्रबल दिखाते है।
राजधर्म एवं निजधर्म में राष्ट्रधर्म का पाठ पढाते है।
आदर्शों की स्थापना में, मर्यादाओं की पालना में,
स्वयं कष्ट अनेको सह कर भी जीवन खपा देते है।
जो जन-जन के हृदय में बस जाते है वे पुरुष ही–
नर से नारायण हो जाते है, वे नर से नारायण हो जाते है॥
मयंक द्विवेदी - गलियाकोट, डुंगरपुर (राजस्थान)