शरदाकुल कुहरा प्रलय, अगहन पूस बसात।
सिहराती तनु अस्थियाँ, कौन सुने जज़्बात॥
विषम शीत कुहरा गहन, कहाँ वस्त्र तनु दीन।
आज़ादी हीरक बरस, दीन गेह श्री हीन॥
शीताकुल ठिठुरन विषम, तुषार शीत अपार।
घन कुहरा में वसन बिन, दीन हीन लाचार॥
थिथुर रही जीवन दशा, धनी दीन में भेद।
कहाँ मूल समता वतन, अधिकारी उच्छेद॥
कोटि कोटि लावारिशें, बनी सड़क छत गेह।
मौत बनी ठंडक खड़ी, कम्पित मानव देह॥
सर्दी बरसाती क़हर, है भीषण हिमपात।
कुहरा तम फैला वतन, आतंकी आघात॥
स्वेटर गद्दा रजाई, कंबल कोट जहान।
वैभवशाली हो सहज, कहाँ दीन लभमान॥
आज़ादी अमृत बरस, लोकतंत्र अभिमान।
अस्सी प्रतिशत दीनता, सार्वभौम पहचान॥
मुफ़्तखोर मानव चरित, सरकारी पा भीख।
थिथुरित तन मन बिन वसन, पड़े सुनाई चीख़॥
महाकाल बन कोहरा, बर्फ़पात चहुँ ओर।
सैलानी मदमस्त हिम, तुषार शीत घनघोर॥
ठंडी अगहन पूस की, बड़ा भयानक काल।
जले अंगीठी लकड़ियाँ, राहत दे बदहाल॥
घी खिचड़ी पापड़ दही, शीत काल प्रिय भोज।
गर्म चाय की चुस्कियाँ, मूंगफली संयोग॥
पर्व मकर संक्रांति का, पोंगल कृषि त्यौहार।
उत्सव नृत्य गीत बिहू, नवल वर्ष उपहार॥
शीतकाल दुखदायिनी, आलस नशा बयार।
धनवानों की मस्तियाँ, दीन ठंड लाचार॥
कहाँ श्रमिक राहत शरद, दीन हीन मज़दूर।
शमन उदर जठराग्नि रत, जीने को मजबूर॥
सिहराती सर्दी क़हर, कोहरा धुंध अपार।
तुषार हार धवल स्मिता, चारु धरा शृंगार॥