संतोषी जन बहुत सुखी हैं,
स्वार्थ की दुनियादारी में।
झूम उठा जो एक ही गुल पर,
क्या करना उसको क्यारी में?
सीख लिया थोड़े में जिसने,
उसकी होती हार नहीं है।
साधे जो अपने ही हित की,
जग से उसको प्यार नहीं हैं।
लालच की आँधी में अब तक,
कितने ही जन भेंट चढ़े हैं।
अपनों से ही छूट गए सब,
स्वार्थ हित जो बहुत अड़े हैं।
माया के अंबार लगाकर,
धन मान बढ़ा कर बैठे हैं।
उनको फिर संतोष कहाँ है,
हित औरो का जो ऐंठे हैं।
हर सुख से संतोष बड़ा है,
मन को वश में करना सीखो।
मानवता के भाव जगा कर,
क़दम मिलाकर चलना सीखो।
संतोष डगर कठिन बहुत है,
पर सुख का आधार यही है।
मिलता है यह आत्म बल से,
यह कोई व्यापार नहीं है।