देश की माटी है चंदन।
करें हम बार बार वंदन॥
१
प्रकृति की अनुपम सुषमा यहाँ,
और षड् ऋतुएँ मिलती कहाँ।
यहीं हिमधारे पर्वतराज,
तपस्वी तप करते हैं जहाँ।
मायका सरिताओं का यहीं,
देख प्रमुदित होता है मन॥
२
यहीं पर आए नर तन धर,
देव गंधर्व दनुज किन्नर।
जगत के संरक्षण कर्ता,
चक्र धारण करते निज कर।
शेष की सेज क्षीरसागर,
विराजें श्री मननारायण॥
३
यहीं शारदा मातु के नाथ,
कमंडल कमल सुमिरनी हाथ।
कमल के आसन पर आसीन,
लिए वेदों को अपने साथ।
जगत ब्रह्मा कहता जिनको,
सृष्टि का करते हैं सिरजन॥
४
जटाओं में माँ गंगा धर,
विराजे मृगछाला तन पर।
यही बसते शिव कैलाशी,
जहांँ गूंँजे बम-बम हर-हर।
लिए कर में त्रिशूल डमरू,
करें भस्माभिषेक नर्तन॥
५
यहीं हरिचंद हुए दानी,
स्वप्न में दे दी रजधानी।
बिके नारी, सुत औ' ख़ुद भी,
सत्य पर नहीं फिरा पानी।
जगत में जिनका यश अनुपम,
भरेगा निज मन में जन-जन॥
६
अधम था लंकापति रावण,
किया वन से जानकी हरण।
लिए धनुसायक पुरुषोत्तम,
किया वध रावण, जीता रण।
यहीं है पावन अवध पुरी,
जहाँ जन्मे दशरथ नंदन॥
७
यहीं वृंदावन गोकुल धाम,
जहाँ अवतरित हुए घनश्याम।
रचाया रास जमुन तट पर,
बजाई बंशी धुन अभिराम।
सुनाई गीता रण मध्ये,
जिसे सुन मन त्यागे क्रंदन॥
८
यहीं थे वाल्मीकि कवि व्यास,
माघ, भवभूती, कालीदास।
चंदबरदाई, ख़ुसरो अमीर,
कबीरा, सूरा, तुलसीदास।
बिहारी लाल, घनानंद, देव,
निराला, अज्ञेय, त्रिलोचन॥
९
धरा यह रत्नों की आकर,
धन्य हम जन्म यहाँ पाकर।
धरा को आलोकित करने,
जले हम ही दीपक बनकर।
यहीं पर प्रथम किरण लेकर,
भानु चढ़ आता निज स्यंदन॥
इंद्र प्रसाद - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)