राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
हिन्दी! तुम सबसे सुंदरतम - कविता - राघवेंद्र सिंह
गुरुवार, सितंबर 14, 2023
मधुमिश्रित, कलित, पुरातन तुम,
भारत के अंतस निवासिनी।
हो मातृ संस्कृत से उद्धृत,
रति सी तुम कोमल सुहासिनी।
हो दिव्य भाल पर बिंदु सरिस,
सौंदर्य रूप तुम हो कुसुमा।
जन-जन का परिचय है तुमसे,
तुम सहज, सरल निरुपम सुषमा।
तुम नवल चेतना, नव विहार,
उज्ज्वल तन प्रहवित, तुम शुचिता।
तुम हो दर्शन, संस्कृति दर्पण,
तुम रम्य-सुरम्य हो नव वनिता।
तुम हो अक्षर का प्राण पुंज,
तुम भाषाओं में सर्वोत्तम।
हे विश्वप्रिया!, चिर, शृंगारित,
हिन्दी! तुम सबसे सुंदरतम।
तुम दिग दिगंत में हो वर्णित,
तुम हो आनंदित सरित धार।
तुम करुण, राग, उद्वेग, हास्य,
तुम कोटि-कोटि रव की पुकार।
तुम स्वयं प्रार्थना वंदनीय,
तुम रव स्वतंत्र, नव अनुभूति।
तुम वेद-पुराण की हो वाणी,
तुम अन्तर्भाव की अभिव्यक्ति।
तुम तत्सम-तद्भव का प्रकाश,
तुम शब्द, नाद, लिपि हार लिए।
तुम ही मूल्यों की नैतिकता,
तुम ईश्वर का उपहार लिए।
तुम स्वर-व्यंजन का जला दीप,
हर लेती हो हर उद्भित तम।
हे विश्वप्रिया!, चिर, शृंगारित,
हिन्दी! तुम सबसे सुंदरतम।
तुम ही हो काव्य-कलश प्रतिमा,
तुम सृजन नवल हो काव्य, छंद।
तुम ही कबीर की सधुकाई,
तुम कृष्ण-प्रेम, मीरा अनंद।
तुम वसुंधरा पर हो रम्या,
तुम तुलसी, पंत, निराला हो।
तुम विरह, वेदना महादेवी,
तुम बच्चन का मधुप्याला हो।
तुमसे ही मानस और गीता,
तुम सूर, बिहारी हो भूषण।
तुम ही दिनकर सा हो उजास,
तुम ही हर कवि का आभूषण।
परिधान व्याकरण में लिपटी,
तुम बन जाती हो नव संगम।
हे विश्वप्रिया!, चिर, शृंगारित,
हिन्दी तुम सबसे सुंदरतम।
तुम संवादों का मृदु प्रवाह,
तुम प्रेमचंद की अभिलाषा।
तुम ही रसखान, अज्ञेय, गुप्त,
आतिथ्य भाव की तुम आशा।
तुम बनी जायसी की भाषा,
तुम धर्म, सभ्यता हो संस्कृति।
तुम ही हो रस और अलंकार,
तुम राष्ट्रगान अरु गीत कृति।
तुम ही भारत का यशोगान,
तुम अनुनासिक हो अनुस्वार।
तुम विश्व पटल पर आलोकित,
तुम अखण्डता का कलित द्वार।
तुम शुद्ध, प्रमाणिक, गीतमयी,
सदमार्ग प्रशस्ति, चिर, अनुपम।
हे विश्वप्रिया!, चिर, शृंगारित,
हिन्दी! तुम सबसे सुंदरतम।
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