[1]
साड़ी का कारोबार दिन-ब-दिन ठप्प होता जा रहा था। एक के बाद एक लूम बन्द होते जा रहे थे। मज़दूर बुनकर अपना हुनर छोड़, विवश होकर दूसरे रोज़गारों में मज़दूरी और ग़ुलामी कर रहे थे। कुछ मित्र विदेशों की तरफ़ तो कुछ मित्र बड़े शहरों की तरफ़ पलायन कर रहे थे। रमज़ान का भी लूम बैठ गया था। सब दोस्तों की तरह उसके सामने भी रोज़ी-रोटी का संकट मंडराने लगा था। वह भी अपने बीवी-बच्चों के लिए बाहर जाकर कमाना चाह रहा था। किंतु छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर घर से दूर जाना उसके बस का न हुआ। फ़ाक़ाकशी की नौबत आने पर उसने बीवी से कहा – "सो च तेंव कि एक ठो रेक्सा केराये पर ले लेंव। का कहती तं?"
"अब जब सब रस्त्वा बंद हो गवा ह तो ले लो। लेकिन के दिय केराये पर?" बीवी ने कहा
"कमरुवा आधी मजूरी पर रेक्सा चला व क दे त। ओन्हीं से जा क कहतेंव।"
बीवी से सहमती मिलने के बाद रमज़ान, कमरुद्दीन के घर की तरफ़ रवाना हो गया। इत्तेफ़ाक़ से कमरुद्दीन घर के पास वाली पान की दुकान पर पान खाते बैठा मिल गया। रमज़ान के पहुँचते ही कमरुद्दीन जिसका मुँह पान से भरा था। बमुश्किल मुँह खोलते हुए उसने रमज़ान से बोला – "कारे रमजन्वा! सुनने हौं कि तं हैदराबाद जाते काम क र?"
रमज़ान ने कहा – "जाये क तो सोचे रहेंव। लेकिन लड़िकन छोटे-छोटे हन और उन्हन की अम्मा भी मना क र ती। एहिसे जाये का ख़्याल निकाल दियेंव।"
"तो फिर का करबे? कइसे घर चलिय?" कमरुद्दीन ने पूछा।
"तू ही से उम्मीद ह।" रमज़ान ने बोला।
कमरुद्दीन तो ढूँढ़ ही रहा था कि कोई किराए पर रिक्शा चलाने वाला मिल जाए। फिर सामने से मजबूर इन्सान ख़ुद ही चल कर आ गया था। रिक्शा तो कमरुद्दीन को चलाना नहीं था। घर बैठे-बैठे रिक्शा की आधी कमाई मिल रही थी।
रमज़ान बचपन से ही लूम से सम्बंधित सभी कार्यों में निपुण था। उसकी कुल सात बहनें और दो भाई थे। भाई-बहनों में वह चौथे नम्बर पर आता था। इसीलिए उसे उसके घर-बार वाले और दोस्त तेतरा कहते थे। उसके पैदा होते ही उसके जीवन में अशुभ होने का एक काला टीका लग चुका था। हालाँकि वह ज़्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं था। किन्तु मदरसे की पढ़ाई में वह हमेशा अव्वल ही आता रहा। घर की तंगहाली ने उसे पढ़ने की इजाज़त न दी। स्थिति इतनी दयनीय हो गई थी कि उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। उसके पिता ने अपने जीवनकाल में ही सबकी शादी कर दी थी, लेकिन छोटी बहन की शादी नहीं हुई थी अभी तक। पिता की मृत्यु के पश्चात् बड़े भाई ने अपनी गृहस्ती अलग बसा ली थी। छोटी बहन रमज़ान के साथ ही रहती थी। घर के बँटवारे में उसे भी एक कमरे का मकान और थोड़ी सी जगह मिल गई थी। वहीं उसने लूम लगवाया था। ऐसा नहीं था कि उसका परिवार शुरू से ही कमज़ोर रहा हो। लेकिन आधुनिकता, राजनीतिक प्रपंचों और समय-समय पर हुए दंगों ने मज़दूर बुनकरों की कमर तोड़ दी थी। जब लूम का कारोबार ठप्प होने लगा तब ऐसी दुर्दशा हुई कि एक वक़्त के खाने के भी लाले पड़ने लगे। ऐसी दुरावस्था में ही उसने रिक्शा चलाने की सोची थी।
दिन भर के कठिन परिश्रम से किसी तरह घर में दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम हो जाता था। जीवन की तंगहाली ने उसे वक़्त से पहले बूढ़ा बना दिया था। उसके गाल पिचके हुए थे, बाल सफ़ेद और चेहरे पर झुर्रियाँ। कोई भी देखे तो तरस आता।
आज भी वह वक़्त पर अपने काम के लिए निकला था। लेकिन आज चिंता की लकीरों ने अपना आकार बढ़ा दिया था। कल से रोज़ा शुरू होने वाला था। रोज़ा मतलब ख़र्च का ज़्यादा होना। ऊपर से इतनी गर्मी में रोज़ा और वह भी फ़र्ज़। दोगुने ख़र्च और गर्मी की बात तो ये सोचकर दिमाग़ से निकाल दी कि अल्लाह का हुक्म है तो कोई न कोई सबील वही पैदा करेगा। उसने कहा भी तो है 'मैं अपने बंदों को भूखा नहीं सुलाता।'
फिर भी उसे अनजाने कोई न कोई चिंता तो सता रही थी। शाम हुई घर आया तो पता चला कि चाँद दिख गया है और रमज़ान का महीना शुरू हो गया है। जेब टटोलते हुए उसने सोचा कि इन्हीं पैसों में रात के खाने की व्यवस्था के साथ-साथ सहरी की भी व्यवस्था करनी है। वह फिर घर से बाहर निकला और कुछ ज़रूरी सामान घर के लिए लाकर रख दिया। कुछ देर बाद इशा की अज़ान होने लगी। वह नमाज़ और तरावीह के लिए मस्जिद चला गया।
[2]
सुबह उठा, रोज़ा की नीयत की और जो था उसी से काम चलाया। वह फ़ज्र की नमाज़ के बाद सोया नहीं। उसे चिंता थी कि आज अगर मेहनत ज़्यादा न की तो शाम में इफ़्तार और खाने का इंतेज़ाम नहीं हो पाएगा। यही सोचकर वह अपने काम के लिए रवाना हो गया।
बीवी ने समझाने के अन्दाज़ में अपने शौहर से कहा – "रोज़ा मत रक्खो।"
लेकिन वह माना नहीं। घर से निकलते हुए उसने बच्चों को एक नज़र प्यार भरकर देखते हुए बीवी से कहा – "बच्चे केतने मासूम होतेन। एकदम बेफ़िक्री में सुत्ते हन।"
घर से निकलते हुए बीवी ने रमज़ान को गमछा दिया और ताकीद करते हुए कहा – "आज सूरज का मेज़ाज ज़्यादा गरम ल ग त।"
"एहिसे जब लगिय कि तनी आराम कर लो। तुरंत घर आ जइयो।"
"कान्हें कि तुन्हीं हमन का सहारा हौ।"
ये कहते हुए बीवी ने अपने शौहर की सलामती के लिए दुआइया कलीमात कहा – "अस्सलामु अलैकुम"
रमज़ान ने भी जवाब में कहा – "वालेकुम अस्सलाम"
फिर वह अपनी रोज़ी को लेकर सड़क की तरफ़ रवाना हो गया।
सूरज अपने पूरे ताप के साथ तप बरसा रहा था। हिम्मत न हुई रिक्शा चलाने की। पर बीवी-बच्चों का चेहरा सामने दिख जा रहा था। मासूम चेहरे, बदन में फुर्ती भर देते थे। रिक्शे की गति कभी तेज़ कभी कम होती थी। सवारियों को उनके गंतव्य तक दोनों मिलकर पहुँचा रहे थे। इसी आवाजाही में दोपहर कब हुई पता ही नहीं चला। बदन बेहाल था। ताक़त न थी कि रिक्शा चलाया जा सके। शायद रिक्शा के चलने की आवाज़ भी उसे यही संदेश दे रही थी। पर कहते हैं न 'मन का विश्वास रगों में साहस भरता है' बस यही विश्वास उसे मेहनत करने के लिए उकसा रहा था। रिक्शा कभी जब धीरे चलता तब पीछे बैठी सवारी उसे घुड़क देती। वह मन ही मन में ख़ुद से सवाल करता...
"क्यों अल्लाह मियां ने मुझे ही इतनी तंगी अता की है?
क्या कसूर है मेरा?
क्यों नहीं मैं भी कुर्सी पर बैठकर हुक्म दे सकता?
क्या मेरा हक़ नहीं है कि वातानुकूलित कमरों की ठंडी हवा से बदन को सुकून दे सकूँ।"
फिर दिमाग़ को झिड़क देता और ख़ुद से ही ख़ुद को जवाब देता...
"जाने दो...
इस दुनिया में आराम नहीं तो क्या हुआ?
अल्लाह मियां की दुनिया में तो आराम मिलेगा ही।"
मगर इस बात में उसे संदेह भी रहता। "जाने क्या होगा कल का?"
दोपहर ढल रही थी। धीरे-धीरे शाम हो रही थी और इफ़्तार का भी समय क़रीब आ रहा था। जेब में इतने पैसे आ चुके थे कि आज का रोज़ा खोलने में शायद ही कोई कमी हो। कमी थी तो बदन में जान की। उन पैसों ने हौसले को इतना मज़बूत कर दिया था कि वह मग़रिब बाद भी रिक्शा चलाने के लिए तैयार था। रास्ते से इफ़्तार का ज़रूरी सामान लेकर घर की तरफ़ रवाना हुआ। पैरों में जान न थी। पैर रिक्शा खींचने में सक्षम न थे। इसलिए ख़ुद पैदल होकर रिक्शा खींचने लग गया था। पैर लड़खड़ा रहे थे। उसे महसूस हुआ कि वह गिर जाएगा। आँखों के सामने अँधेरा सा छाने लगता। किन्तु वह चलता रहा। रिक्शा के हैंडिल पर लटका इफ़्तार का सामान उसे जीवन दे रहा था। घर की याद आते ही बच्चों का खिलखिलाता चेहरा सामने आ जाता। मानो बीवी घर के दरवाज़े पर खड़ी अपने शौहर की राह जोह रही हो। बच्चे आपस में एक दूसरे को ये कहकर लड़ रहे हों कि अब्बा को मैंने पहले देखा। मैंने पहले देखा। पत्नी उन्हें समझाते हुए बोल रही हो कि सबने एक साथ देखा है। बच्चे ख़ुश हो जाते। इन्हीं सपनों में गुम घर भी आ गया। क़दम लड़खड़ाते हुए किसी तरह दरवाज़े तक पहुँचे। एक हल्की दस्तक हुई। अंदर से बच्चे चिल्लाते हुए दरवाज़े की तरफ़ एक दूसरे को पीछे करते हुए भागे – "अब्बा आ गएन।" "अब्बा आ गएन..."
बीवी ने दरवाज़ा खोलते ही अपने शौहर से वही दुआइया कलीमात दोहराया – "अस्सलामु अलैकुम"
बीवी के सलाम का जवाब सुनने से पहले ही रमज़ान दरवाज़े पर औंधे मुँह गिर चुका था। शायद बीवी के मुँह से सलामती की दुआ की अब आवश्यकता न थी।
डॉ॰ अबू होरैरा - हैदराबाद (तेलंगाना)